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ऊ की ऊँट गाड़ी पर...
बचपन में तो ‘ऊ’, ऊँट का मतलब इतना ही पता था कि यह कोई चौपाया प्राणी है लेकिन बाद में पता चला कि यह ऊदबिलाव की तरह नहीं है, यह ऊँट तो बड़े कमाल का दिखता है। धीरे-धीरे समझ आने लगा कि ‘रेगिस्तान का जहाज़’ कहलाते इस ऊँट का गणित ‘वो किस करवट बैठेगा’ इस पर निर्भर करता है और ‘ऊँट पर बैठकर बकरियाँ नहीं हाँकी जा सकतीं’। ‘ऊँट का बाल’ भी बहुत महत्व रखता है और यह सब ‘ऊँट के मुँह में ज़ीरा’ जैसा नहीं है। फिर तो ऊ की ऊँट गाड़ी पर बैठकर ऊँट दौड़ कर लेने का मन हो ही गया और मन ऊपर उछल गया।
हर ऊतक में
तभी दूसरी कहावत आ गई ‘ऊखल (ओखली) में सिर डाला तो मूसल से क्या डरना’। ऊपरी चमड़ी कुछ और कह रही थी लेकिन बिना ऊधम मचाए जानने लगे तो हर ऊतक में ही ऊ था। मन में नई ऊर्मि जगी और ऊन की तरह उलझी हर पंक्ति को बहुत बार ऊपर-नीचे कर खँगाला तो इसने ऊपरी खर्चों में फँसी दुनिया की ऊँच-नीच समझा दी।
कभी ऊँची छलाँग लगा दी तो ये भी हुआ कि ‘ऊँची दुकान फीका पकवान’ हाथ आया। ‘ऊँचे से ऊँचा पत्थर लगाकर भवन पूरा करने से बात नहीं बनती’, ‘ऊँचा उठना हो तो नींव मज़बूत होनी चाहिए’। ऊबड़-खाबड़ रास्तों से चलकर ही जाना की ऊपरी कहावतें कितनी सही हैं।
ओंकार का ऊँ
वे दिन भी आए जब सब ऊसर (बंजर) लगा। हर चीज़ से ऊब हो गई, हर चीज़ ने ज़िंदगी को उबाऊ बना दिया तो ऊबने- ऊँघने लगे। दोपहर को थोड़ी देर के लिए ऊँघ (नींद) लिए। तभी इसी ऊ ने ऊर्जा दी और ऊर से ऊर्जावान् हो गए। ऊर्जा संचय के साथ ऊर्जा संरक्षण भी करना था लेकिन तभी जोश-जोश में ऊँची आवाज़ में बात बना ली कि वो ऊँचे कद वाला ऊँचा-पूरा उस ऊँची एड़ी की सैंडिल पहनी ऊँचा जूड़े बनाने वाली के साथ पानी ऊलीच रहा था, बाद में जाना कि असल में तो वह आनंद ऊलीच रहा था।
तभी जाना कि किसी को ऊँचा टाँगकर ऊँचा दर्जा नहीं पाया जा सकता है। जीवन में ऊँची कीमत पानी हो तो ऊँची कुर्सी, ऊँची रैंक, ऊँचे ओहदे की ज़रूरत नहीं होती। ऊँचाई से डरे बिना ऊर्ध्व लोक तक गमन करने, ऊर्ध्व की गति हासिल करने के लिए भी इसी ऊ का सहारा लेना पड़ता है तभी ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वगामी बन पाए और ऊर्ध्वारोहण करने से यह ओंकार का ऊँ हो गया।
अनूठा ऊ
ऐसा ही है यह अपनी तरह का अनूठा ऊ, वैसे तो देवनागरी वर्णमाला का छठा स्वर है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से ओष्ठ्य, दीर्घ (जिसका ह्रस्व रूप उ है)। इसे जान लिया तो एक क्षण में सारा ऊहापोह समाप्त हो गया।
ऊँहूँ-ऊहूँ करने वाले मन में गोपियों की तरह शक्ति आ गई जिन्होंने कृष्ण के परम ज्ञानी मित्र ऊधो से कह दिया था कि ‘ऊधो मन नाही दस बीस’ या ‘ऊधो मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं’ या ऊ से ही ‘ऊधो हम लायक सिख दीजै’.... और मन फ़िर बचपन की गलियों में चला जाता है जब महाकवि भूषण की इन पंक्तियों को पढ़ा था-‘ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी, ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं’।