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मुनिया की दुनिया
किस्सा 34
पता है आज मुनिया के स्कूल में ‘ट्रेडिशनल डे’ (परंपरागत दिवस) था…मतलब ‘ट्रेडिशनल’ होना अब ‘वन्स इन अ व्हाइल’ (कभी-कभी होने वाली घटना) बन गया है। अलबत्ता मुनिया आज राधा बनकर सज-धज कर स्कूल गई थी। स्कूल से लौटी…और माँ ने उस पर आते ही सवाल दागा कि बैठक कक्ष की दीवार पर स्केच पेन (रंग) किसने चलाया?
मुनिया राधा रानी पर चढ़ा था स्याम रंग…और मुनिया ज्यों-ज्यों कहने लगी…मुझे त्यों-त्यों कविवर सूरदास याद आने लगे…
मैंने नहीं किया (मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो)
मुझे तो सुबह-सुबह ही आपने स्कूल भेज दिया था (भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहि पठायो।)
और अब देखो, अभी तो आ रही हूँ ( चार पहर बंसी बन भटक्यो, साँझ परे घर आयो॥)
मेरे तो हाथ भी देखो कितने छोटे हैं, इतनी ऊँचाई पर मैं कैसे चितरा (आड़ी-तिरछी लकीरें) सकती हूँ? ( मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पयो।)
ये कल शाम दीदियाँ (वह अपनी दीदी को इसी नाम से बुलाती है) और बाकी सहेलियाँ खेल रही थीं, उन्होंने ही मेरे हाथ पर भी स्केच पेन चला दिया था (ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो॥)
आई (माँ) तुम भी इनकी बातों में आ गई… ( तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो।)
तुम तो ऐसे डाँट रही हो, जैसे मैं आपकी मुनिया ही नहीं, किसी और की बेटी हूँ ( जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो॥)
अब मैं कल से स्कूल भी नहीं जाऊँगी, कट्टी ( यह लैं अपनी लकुटि कमरिया, बहुत हिं नाच नचायो।)
उसकी इस भोली अदा को देख उसकी माँ भी हँस दी और उसे गले से लगा लिया (‘सूरदास तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो॥)
… यानी कि बच्चे तो बच्चे होते हैं, वे न स्त्री होते हैं, न पुरुष…आज भी राधा वैसा ही स्वाँग धरती है, जैसा सालों पहले कृष्ण ने किया होगा…हर दिन नटखट और चंचल है मुनिया… भला उसे ‘ट्रेडिशनल डे’की क्या ज़रूरत!
#MKD। #Kissa 5। मुनिया के लिए तो हर दिन है केवल पिता का
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(क्रमशः)
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