मुनिया की दुनिया

मुनिया की दुनिया

किस्सा 28

आज माझे बाबा पास्ता बनवणार आहे!’

मुनिया उचक-उचक कर, उछल-उछल कर , चिहूँक-चिहूँक कर सबको बता रही थी…हर शब्द कितना महत्वपूर्ण था, ‘आज मेरे पिताजी पास्ता बनाने वाले हैं।

‘आज’ भी, ‘मेरे’ का वह अधिकार भाव भी..मनपसंद ‘पास्ता’ भी…और जीने को क्या चाहिए, है न मुनिया!

पिता द्वारा कुछ करना कितना ‘विशेष’, ‘ख़ास’, ‘स्पेशल’ लगता है…ऐसा लगता है कि ‘प्रिविलेज्ड वन’ है..पर माँ भी तो करती है…पर माँ तो सबके लिए सब करती है, खाना बनाती है, दौड़ लगाती है, भाग-भाग कर काम करती है पर पिता केवल अपनी मुनिया के लिए यह करते हैं तब मुनिया को लगता है कि ‘बाबा केवल मेरे हैं’ (मतलब और किसी के नहीं) और ‘केवल मेरे लिए कुछ कर रहे हैं’ (और किसी के लिए नहीं)

… शायद कल या परसों ही, सुबह-सुबह तुम कितना रो रही थी, जब ‘बाबा’ तुम्हें बाय न कहकर ऑफ़िस की हड़बड़ाहट-जल्दबाजी में निकल गए थे। तुम्हारी माँ ने उन्हें फोन कर पार्किंग से वापिस बुलवाया था और वे भी आए थे, सुबह की इतनी हडकंप में भी तुम्हें बाय कहने…

…उस ऑफ़िस में उस ऊँची कुर्सी पर बैठे बॉस को लगता होगा कि ‘मैं बॉस हूँ’

पर दुनिया के हर ‘बाबा’ के लिए उसकी मुनिया ही उसकी बॉस होती है…जो हुकुम चलाती है और ‘बाबा’ भी उसकी एक हँसी के लिए सारा टेंशन भूल जाते हैं…और हर मुनिया को लगता है कि उसके ‘बाबा’ हैं, उसके लिए-यह कहते हुए कि

‘सारी दुनिया एक तरफ़, मेरी मुनिया एक तरफ़’

(क्रमशः)

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