मुनिया की दुनिया
किस्सा 23
दरवाज़े पर ठक-ठक हुई… अभी सुबह के शायद साढ़े सात-पौने आठ हो रहे थे…दूध वाला, पेपर वाला तो उससे पहले ही आ चुका था…वैसे तो मैं समझ ही गई थी मुनिया होगी…मैंने दरवाज़ा खोला,मुनिया ही थी।
मुनिया बिना कुछ बोले रसोईघर में चली गई अपना ‘खाऊ’ खाने। मुनिया को पता है उसका ‘खाऊ’ कहाँ रखा है, वह वहीं जाती, केवल उतना ही डिब्बा खोलती है, उसे जितना चाहिए, कभी एक-कभी दो, कभी मूड हुआ तो चार-पाँच..और डिब्बा बंद कर फिर जगह पर रख देती है। उसे बाकी किसी चीज़ से कोई मतलब नहीं होता। उसे पता है कि यह ‘खाऊ’ केवल उसका है और केवल उसी का, उस परएकाधिकार भी।
एक बार तो कहीं बाहर खाना-खाने जाना था…पर उससे पहले भी मुनिया को अपने ‘खाऊ’ की याद आ गई..पार्टी-शार्टी तो सबके लिए थी न, पर यह ट्रीट तो केवल उसकी है, उसने वैसे ही डिब्बा खोला, ‘खाऊ’ निकाला, मुट्ठी में थामा और डिब्बा बंदकर यथास्थान रख दिया।
ऐसे ही उसकी एक ख़ास गिलासी (छोटा ग्लास) भी है। जब वह छोटी थी न, मतलब अब से भी छोटी, तब उसे उस ज़रा-सी तांबे की गिलासी में पानी देती थी, पर अभी भी उसे वही लगती है। अब उस गिलासी से तीन-चार बार पीएगी, पर चाहिए वही गिलासी। उससे छोटी डेढ़ साल की चुनिया को एक बार वह गिलासी दी तो मुनिया ने तुरंत ऐतराज़ भी जताया…सही है वह दमकती गिलासी तो मुनिया की है।
अरे, हाँ…तो कहाँ थे हम…
तो मुनिया ने डिब्बा निकाला, खोला, उसमें से ‘खाऊ’ निकाला, डिब्बा बंद किया, जगह पर रख दिया। मैंने ऐतिहातन पूछ लिया
मैं- ब्रश किया है न?
मुनिया- हाँ ब्रश किया, पर नहाई नहीं हूँ। (मुनिया ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया)
मैं- कोई बात नहीं, पर बिना ब्रश किए नहीं खाते न इसलिए पूछा…
मुनिया ने सुना या नहीं पता नहीं, उसने तो फुदकते हुए अपने घर की राह पकड़ी। उसकी माँ ने मेरे घर से उसके घर के बीच के गलियारे में मुनिया को झिड़का भी – ‘मना किया था न, ऐसे किसी के यहाँ से कुछ नहीं लेते’। मैंने कहा- ‘अरे कोई बात नहीं’।
और यकीन जानिए मेरा यह ‘कोई बात नहीं’ कहना, पड़ोसी-धर्म निभाने की औपचारिकता नहीं है। मुझे तो लगता है कि मुनिया जिस अधिकार से आती है, खाती है, पानी पीती है…हाँ कभी-कभी तो बाहर खेलते-खेलते, मेरे घर केवल पानी पीने आती है,उसे ऐसे ही करते रहना चाहिए।
बच्चे अपना-पराया कुछ नहीं जानते, फ़िर धीरे-धीरे हम उनके मन में भेद बैठाना शुरू करते हैं, यह तुम्हारा घर है, यह उसका घर है।
फिर चक्र पूरा घूमता है..बुढ़ापे तक आते-आते संज्ञान होता है कि अपना-पराया कुछ नहीं होता…सब अपने हैं। फ़िर सबके प्रति वात्सल्य भाव जगता है।
पर क्यों न बच्चों में सबसे प्रीत करने का जो भाव है, उसे वैसे ही रहने दिया जाए..फिर विद्वेष कहाँ टिक पाएगा?
(क्रमशः)
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