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मुनिया की दुनिया
किस्सा 14
मुनिया जब भी घर आती है, बैठक को अपने हिसाब से सजा देती है। मतलब उन छोटे पीढ़ों, चौकियों को लगा लेती है, स्टूल को भी..और सबको एक कतार में लगा देती है।
‘अरे पर क्यों’?
‘संगीत कुर्सी (म्यूजिकल चेयर) के लिए’।
‘अरे पर क्यों’?
‘कोई भी आएगा और इस तरह लगा-लगाया हो तो आते ही खेल सकता है’।
इसके बाद फिर मेरी हिम्मत नहीं होती कि ‘अरे पर क्यों’ पूछने की, कि ‘भला कोई बाहर से आने वाला आते ही संगीत कुर्सी क्यों खेलेगा’?
मुनिया की दुनिया और बड़ों की दुनिया जो अलग है। मुनिया की दुनिया में सब बच्चे हैं, उसकी माँ भी और उसकी सहेली भी और सहेली की माँ भी…जो जब चाहे, जहाँ चाहे खेल सकते हैं। बड़ों की दुनिया ‘बुढ़ाते’ जाने की दुनिया है, जिसमें ‘सलीके का अनुशासन’ ही ‘संयत’ जीने का एकमात्र तरीका है।
मुनिया के जाने के बाद मैं फिर सब कुछ बड़ों की तरह ‘करीने’ से रख देती हूँ।
वह फिर जब भी घूमते-घामते लौटकर आती है.. फिर सब ‘सजा’ देती है। बिना कोई गिला-शिकवा किए…वह मुझे नहीं डाँटती कि मैंने उसका खेल क्यों बिगाड़ दिया…(जबकि हम तो पहली फुर्सत में बच्चों को डाँटने के लिए ही बैठे होते हैं)
दुनिया को ‘सजा-सँवरा’ देखना चाहती है मुनिया…पर दुनिया तो उसे ही ‘अस्त-व्यस्त’ पड़े होना कहती है।
अब बोलो…
(क्रमशः)
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