संवेदना का अकाल

संवेदना का अकाल

लगातार लॉक डाउन, लोगों का आपस में न मिल पाना और उस पर भी हास-परिहास, चलो इतना तो समझ आ रहा है लेकिन इससे एक गहरी पीड़ा भी उपज रही है। कहीं ऐसा न हो कि पहले से ही बोथरी हो रही मानवीय संवेदनाएँ और भी ख़त्म हो जाएँ। केवल ग्रीष्म नहीं आई है बल्कि संवेदना का अकाल भी पड़ गया है

संवेदना को कैसे बोएँ, मौसम पानीदार नहीं है’, लोगों की आँखों का पानी मर रहा है। किसी के मर जाने की खबर भी हम इतने ठंडे तरीके से सुन रहे हैं, जैसे उसके जीने का भी हमारे जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया हो।

लोक का भाव

‘चार लोग क्या कहेंगे’, ‘शादी-ब्याह में तो आना-जाना पड़ता है’, ‘अर्थी में लोग कम नहीं पड़ने चाहिए’...ये और इस तरह के अन्य कई मुहावरे हमारे लोक जीवन को बताते आ रहे हैं। यूँ तो मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ही, लेकिन भारतीय जनमानस में सुख-दु:ख में साथ खड़े होने का भाव अनादिकालीन है और शायद यही इसे प्राचीन जीवित संस्कृति भी बनाता है

यहाँ जो कुछ भी किया जाता है उसमें लोक का भाव अधिक होता है। कभी-कभी यह आडंबर या मिथ्या हो सकता है लेकिन यह व्यक्ति के आचरण पर अकुंश डालने का भी काम करता है। जन्म के ‘सोहर’ से लेकर ‘अर्थी उठाने वाले हाथ कम नहीं पड़ने चाहिए’ तक का भाव उसे घनत्व देता है, ठोस बनाता है।

फ़र्क नहीं पड़ता

भौतिकी कहती है कोई पदार्थ ठोस इसीलिए होता है क्योंकि उसके भीतर के अणु एक-दूसरे से गहरे बंधे होते हैं, जैसे-जैसे यह बंधन ढीला होता है वह पदार्थ तरल से विरल या गैस के रूप में परिवर्तित हो जाता है। समाज के साथ भी उसका हर घटक परस्पर कसकर जुड़े होने से उस समाज को ठोस बनाता है।

बड़े शहरों में नीति-नियम तेजी से क्यों टूटते हैं? क्योंकि वहाँ कोई किसी को नहीं जानता, जानता भी हो तो पीढ़ीगत नहीं पहचानता, कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कौन कैसा आचरण कर रहा है, न उस व्यक्ति को फ़र्क पड़ता है कि क्योंकि उसे कोई संबंध नहीं बनाने, नाते-रिश्ते नहीं निभाने।

दुनियादारी

रिश्तेदारियाँ निभाने में दूसरे को मन को सँभाला जाता है, दोस्ती निभाने में सबका ख़्याल रखा जाता है। आड़े वक्त में दोस्त ही काम आते हैं, लेकिन बदलते हालात में अब सबको समझ आ रहा है कि आड़े वक्त में कोई काम नहीं आएगा। यदि कोविड की वजह से मृत्यु हुई तो घर-परिवार के लोग भी मय्यत में न जा सकेंगे, बाहर वालों का क्या कहें। यदि मरने की वजह कोविड न भी हुआ तब भी शवयात्रा में केवल 20 लोग जा सकते हैं, तो दुनियादारी से क्या काम।

ज़रूरत नहीं रही

कोविड ने मरने का जितना भय दिया, उतना मरने का भय छीन भी लिया है। एक-दूसरे के प्रति संवेदशीलता के भाव को मार दिया है। अपने-अपने घर पर बैठो, अपने-अपने मोबाइल,लैपटॉप में लगे रहो। यहाँ यह बिल्कुल नहीं कहा जा रहा कि गलबहियाँ कीजिए, बात यह है कि कहीं न कहीं यह मानसिकता हावी होने लगी है कि किसी को किसी की ज़रूरत नहीं रही तो अब किसी का दर्द किसी और को नहीं रुलाएगा। हर कोई मरने की कगार पर है, कौन किसके लिए रोए।

बंधन नहीं बचा

एक कहावत सुनी होगी, ‘जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’, मतलब जिसे दर्द होता है, उसे दर्द का अहसास होता है। जिन्हें कोविड हो रहा है, वे अस्पतालों में अकेले भर्ती होने को बाध्य हैं, वे अपना दर्द अकेले सह रहे हैं, उससे अकेले निपट रहे हैं, किसी से मिलने की अनुमति ही नहीं है।

निदा फ़ाजली की ग़ज़ल में है-‘मिलना जुलना जहाँ ज़रूरी हो, मिलने-जुलने का हौसला रखना’। पर अब तो मिलना-जुलना कतई ज़रूरी नहीं रहा, तो कोई क्यों वो हौसला भी रखेगा? हौसला क्यों ज़रूरी है कि ऐसा कुछ न करो कि सामने वाले से आँख न मिला पाओ, पर वह बंधन ही नहीं बचा। किसी से आँख मिलाना ही नहीं है, कोई आपका झूठ पढ़ ही नहीं सकेगा। जिसे जैसी मर्जी, वैसा जिए।

दुष्कर समय के साक्षी

यह लिखते हुए हाथ थर्रा रहे हैं, क्या पढ़ते हुए कंठ नहीं भर्रा रहा? हम कितने दुष्कर समय के साक्षी बनने वाले हैं? हमारी स्थिति महाभारत के युद्ध के बाद बचे उन 18 योद्धाओं जैसी है जिनका जीवन भले ही बच गया था लेकिन उनके पास जीने जैसा कुछ नहीं बचा था। आज हम ज़िंदगी बचाने में लगे हैं लेकिन जीने के लिए जो कुछ ज़रूरी है वह हम खोते जा रहे हैं, हम उस संवेदना, समानुभूति, सहानुभूति, हमदर्दी जैसे शब्दों को अपने शब्दकोष से निकालते जा रहे हैं और आश्चर्य है कि हमें इसका कोई रंज भी नहीं हो रहा।