नया दौर है...अब है नई कहानी

नया दौर है...अब है नई कहानी

निदा फ़ाज़ली का मशहूर शे’र है- मिलना-जुलना जहाँ ज़रूरी है, मिलने-जुलने का हौसला रखना, वह एक दौर था जब लोग मिलने-जुलने में विश्वास रखते थे। आम जुमला हुआ करता था कि ‘मिल-बैठकर चर्चा/बात करते हैं’। बिना मिले, बिना किसी को देखे-परखे कुछ भी तय नहीं होता था, न शादी-ब्याह, न गौना-रोका और न कोई व्यवसाय।

पहले-पहल मैट्रोमनोनियल साइट्स आईं, रिश्ते ऑनलाइन तय होने लगे और अब तो रोज़मर्रा के जीवन में भी यह आम हो गया है कि बिना मुलाकात के भी काम चल जाता है, बात बन जाती है। मिलना-जुलना ज़रूरी ही नहीं रहा तो उसका हौसला रखने की भी क्या ही ज़रूरत रह जाएगी।

यह नया दौर है, नई पीढ़ी की अब नई कहानी है जिसमें किसी से रिश्ता भले ही कितना ही अच्छा क्यों न हो, कमिटमेंट/ प्रतिबद्धता की बात कोई नहीं कर रहा है। ‘टीटीएमएम’ (TTTM) का चलन मतलब ‘तेरा तू, मेरा मैं’, पहले रेस्तराँ में बिल भुगतान तक सीमित था, अब रिश्तों में भी आ गया है, जब तक साथ चले, चले, बाद में ‘तेरा तू...’

हर रिश्ते को नाम दिया जाता था और फिर गीत आया ‘प्यार को प्यार ही रहने दो, रिश्ते को कोई नाम न दो’। अब लेबल तो दिए जा रहे हैं लेकिन वे लेबल ही बता रहे हैं कि अपेक्षाएँ किसी को किसी से नहीं हैं। बहुविकल्पों की बात, ‘पॉलीमॉर्फ़िसम’ कंप्यूटर के ‘जावा प्रोग्राम’ से निकलकर जीवन में भी आ गया है, कंप्यूटर में एक ही क्रिया को विभिन्न तरीके से करने की प्रक्रिया को कहते हैं तो ‘पॉलीयामोरोस’ या बहुआयामी का रिश्तों में अर्थ यह आ गया है कि कई रूमानी (विशेषकर शारीरिक रिश्ते) दोनों की रज़ामंदी से दोनों ओर से निभाए जा रहे हैं।

ऐसे रिश्तों में भी एक-दूसरे के प्रति लगाव और भरोसा पहली शर्त होता है, हालाँकि वह शर्त कितनी पूरी होती है, इसे लेकर मतभेद हो सकता है लेकिन ‘जेन ज़ेड’ की इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। उनके रिश्तों के वे सिचुएशनशिप, टैक्सटैशनशिप और कफ़िंग का लेबल देते हैं या कह लीजिए इन श्रेणियों में रखते हैं। आख़िरकार ये श्रेणियाँ होती क्या हैं, आइए जानते हैं-

सिचुएशनशिप-

यह रूमानी या दैहिक रिश्ता ही होता है लेकिन इसे औपचारिक या बँधे-बँधाए रिश्ते की तरह नहीं देखा जाता। यह उतना गंभीर भी नहीं होता। यह बड़े कैजुअल किस्म का, अनिर्धारित रिश्ता होता है। कमिटमेंट तो होता है लेकिन बंधन नहीं होता। भावुकता का इसमें कोई स्थान नहीं होता। स्थान, घटना, परिस्थिति देखकर इस रिश्ते की योजनाएँ बनती-बिगड़ती हैं और किसी को कोई मलाल भी नहीं होता। इसमें वैसी स्थिरता नहीं होती। दोनों ओर से एक के साथ रहते हुए अन्य विकल्पों को भी आज़माया जाता है।

टैक्सटैशनशिप-

कुछ मामलों में ऐसा होता है कि लोग आपस में कभी मिलते ही नहीं है। इसमें एक तरह का रिश्ता तो होता है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो कोई रिश्ता नहीं होता। भावी जीवनसाथी, सहकर्मियों या दोस्तों के साथ ऐसा रिश्ता हो सकता है। कई बार लोग इस तरह के रिश्तों का चुनाव खुद नहीं करते बल्कि खुद-ब-खुद उनके जीवन में ऐसे रिश्ते घटित होते हैं। यह पूरी तरह टैक्स्ट मतलब आभासी संदेशों पर निर्भर होता है। कई बार किसी से वास्तविक रिश्ता बनाते हुए इस तरह का कोई रिश्ता बाधक भी बन जाता है।

कफ़िंग-

किसी रिश्ते में बँधा महसूस करना कफ़िंग है जैसे शीत के बढ़ते प्रकोप (बर्फ़बारी) से लोग एक स्थान पर अटक जाते हों। रिश्ते ठंडे पड़ जाते हैं लेकिन उसमें से निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखता। भले ही वे एक-दूसरे के प्रति कोई रुचि या प्रतिबद्धता महसूस नहीं करते हों लेकिन उन रिश्तों में अटके रहते हैं। दूसरे को अटकाकर रखने की मंशा भी ऐसे रिश्तों में होती है।

ये श्रेणियाँ उस ‘जेन ज़ेड’ उस जनरेशन या पीढ़ी को बताती है जो सन् 1990 के बाद या सन् 2010 के आस-पास जन्मी थी और अब रिश्ते बनाने की उम्र में आ पहुँचे हैं। ये डिजिटल युग के युवा हैं, जो बचपन और युवावस्था के नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हैं, सेहत के प्रति सतर्क हैं, भविष्य को लेकर चिंतित हैं उतने ही खुद को किसी भी रिश्ते में सुरक्षित नहीं पा रहे इसलिए हर रिश्ते में आज़ादी और अपनी निजता/ प्राइवेसी चाह रहे हैं।