विश्व रंगमंच दिवस

विश्व रंगमंच दिवस

अब लौं नसानी, अब न नसैहों

मुझसे इतिहास की

भविष्य की बात मत करो

मुझे अगला कदम रखने के लिए ज़मीन दो’

कवि पाश की ये पंक्तियाँ जब भी कौंधती हैं तो लगता है प्रदर्शनकारी कलाओं का यही सत्य है। प्रदर्शनकारी कलाएँ जिस दौर से गुज़र रही हैं उसमें इतिहास की या भविष्य की बात करने से कुछ हासिल नहीं होना है, वर्तमान ही गढ़ना पड़ेगा।

आज विश्व रंगमंच दिवस

आज विश्व रंगमंच दिवस (27 मार्च) है। फ्रांस के जीन काक्टे ने वर्ष 1962 में पहला अंतर्राष्ट्रीय रंगमंच संदेश दिया था, भारत के गिरीश कर्नाड ने वर्ष 2002 में इसे फिर से दोहराया। अब वर्ष 2021 है। इस दौर ने कोरोना विपदा बनकर हर क्षेत्र को डस रहा है तो रंगमंच उससे कैसे अछूता रहेगा। रंगमंच ने उसका सबसे गहरा और शायद सबसे बुरा असर झेला है।

फ़िल्मी दुनिया भी उबरने की कोशिश कर रही है लेकिन वहाँ अभी भी शाहरुख खान ‘पठान’ मूवी के लिए सौ करोड़ रुपए की माँग कर सकता है पर थियेटर आर्टिस्ट की क्या इतनी बिसात है, क्या वे इतने करोड़ रुपए की माँग कर सकते हैं? क्या वे कभी भी इतने करोड़ रुपए की माँग कर सकते हैं? सिनेमा में छोटी-मोटी भूमिकाएँ करने वालों के लिए भी यह एक ख़्वाब है तो जिस रंगमंच की आज के दिवस पर हम बात कर रहे हैं वहाँ तो वैसे भी हमेशा गरीबी में आटा गीला रहता है।

आग से खेलना

कबीरदास जी ने कहा ‘जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ’। थियेटर की गत ऐसी ही है, इसलिए थियेटर करना अपने आप में आग से खेलना है। थियेटर पार्ट टाइम हो सकता है इसलिए अधिकतर दिन भर नौकरी-धंधा, स्कूल-कॉलेज, पढ़ाई-लिखाई कर थियेटर वाले शाम से रात गहराने तक रिहर्सल करते हैं। जब थियेटर उन्हें कुछ नहीं देता तो वे उसमें अपने आपको इतना क्यों झोंकते हैं? इसका जवाब है कि थियेटर उन्हें फिर दूसरे दिन जीवन से जूझने की ताकत दे देता है। दर्शकों से मिलने वाले सीधी तालियाँ उनकी छाती फुला देती है और उसमें वे और साँस भर पाते हैं।

पर अब थियेटर की ही साँस टूटती सी लग रही है। दर्शक नहीं आ रहे, मंच सूने हैं और जिनका जीवन ही इस पर निर्भर था वे फाँकों में दिन बिताने को मजबूर हो गए हैं। पर इन कलाकारों को तो पहले भी पता था कि थियेटर से आमदनी नहीं होने वाली, इनसे तो तब भी पूछा जाता था कि थियेटर तो करते हो, पर वैसे क्या करते हों, मतलब कमाते कैसे हो?

नेपथ्य के कलाकार

थियेटर की बात करने पर हमारा फ़ोकस अभिनेता/ अभिनेत्री पर होता है, उन्हें थोड़ा ग्लैमर मिल जाता है, मंच से सीधी तालियाँ मिलती हैं लेकिन परदे के पीछे करने वाले नेपथ्य के कलाकार अंधेरे में ही रहते हैं। वे कॉस्ट्यूम बनाने वाले, वे स्टेज सजाने वाले, वे मंच सज्जा करने वाले, वे मेकअप मैन, वे संगीत देने वाले और नाटक को लिखने वाले भी...उनकी पूछ-परख तो उतनी भी नहीं होती, न पैसा मिलता है, तो वे कहाँ जाएँ

उम्मीद की रोशनी

उम्मीद की रोशनी की तरह डिश टीवी पर सातों दिन 24 घंटे चलने वाला रंगमंच ऐक्टिव चैनल दिखता है। यह एक अच्छी पहल है। बिना दर्शकों के थियेटर में जाकर नाटक किया जा सकता है जैसे स्टेडियम में बिना दर्शकों के मैच हो रहे हैं। यू-ट्यूब का सहारा लिया जा सकता है, नेट फ्लिक्स जैसे माध्यम भी हैं। रास्ते तो निकालने होंगे। पूरे देश में हाल में कोरोना के 62 हज़ार केस मिले, केवल महाराष्ट्र में 37 हजार मतलब यह कहर रुकने वाला नहीं। तुलसीदास जी कहकर गए वैसा करना होगा- अब लौं नसानी, अब न नसैहों मतलब अब तक तो नष्ट हो गया, पर अब इसे नष्ट नहीं होने देंगे।

क्या समस्त प्रदर्शनकारी कलाओं के बारे में हम ऐसा प्रण ले सकते हैं?