एक टाइम लाइन-वक्त से पहले
कभी बच्चों को प्रतीक्षा करते हुए देखा है? वे प्रतीक्षा करते हैं लेकिन हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे रहते, वे लगातार कुछ न कुछ करते रहते हैं। उनसे कहिए शाम को खिलौना ला देंगे तो वे शाम के उस समय राह तकते बैठेंगे कि कब खिलौना आएगा लेकिन पूरा दिन वैसे ही ऊधम मचाते रहेंगे जैसे हमेशा मचाते आए हैं। वे अपने जन्मदिन की भी इसी तरह प्रतीक्षा करते हैं, जन्मदिन आने वाला है,वे रोज़ दिन गिनते हैं लेकिन रोज़मर्रा की अपनी गतिविधियों को बाधित नहीं होने देते।
कभी किसी दिन जिद पर अड़ जाए तो हम उसे बाल सुलभ हठ कहते हैं और उनकी जिद पर उतना ध्यान नहीं देते क्योंकि हम जानते हैं जिस समय पर जो होना है, वह उसी समय होगा, बच्चों के जिद करने से न तो शाम जल्दी होगी, न खिलौना बिना बाज़ार खुले आ पाएगा, न जन्मदिन तारीख़ से पहले आ जाएगा। फिर बड़े हो जाने पर हम ऐसे बाल सुलभ हठ करते हुए यह क्यों भूल जाते हैं कि वक्त से पहले कुछ नहीं मिलता।
कालखंड
वक्त से पहले इस पंक्ति को कंठस्थ कर लेना चाहिए। जैसे 18 साल के होने से पहले आपको मतदान का अधिकार नहीं मिलता, नहीं मिलता तो नहीं मिलता, वैसे ही टाइम लाइन का है। जो काम जब होना है, वो उसी समय पर होता है। बचपन की लंबी दूरी की यात्राओं को याद कीजिए। जब आप उकताहट के चरम पर होते थे तो आपके बड़े आपसे क्या कहते थे, कुछ देर सो जाओ, उठोगे तब तक हम पहुँच जाएँगे। हम भी उनींदे होते हुए सो जाते थे और ऐसा लगता था कितनी जल्दी पहुँच गए। बड़े होने पर हम इन्हीं छोटी-छोटी बातों को भूल जाते हैं कि इंतज़ार करने का पल लंबा होता है या कि प्रतीक्षा उस कालखंड को लंबा बना देती है। हम सहज क्यों नहीं रह पाते?
तर्क की कसौटी
आप कहेंगे बच्चों को कुछ भी कहकर भरमाया जा सकता है, बड़े हो जाने पर ऐसे सच को झूठ नहीं मान सकते। हमें पता है कि सोलह घंटे की यात्रा है तो हम नींद लें या जागते रहे यात्रा सोलह घंटे की ही होगी, बच्चों को लग सकता है हम जल्दी पहुँच गए, पर हम तो बड़े हैं।
यकीनन तर्क की कसौटी पर आप बच्चों से बढ़-चढ़ कर हैं लेकिन तर्क हमें उलझा देता है। तर्क ही करना है तो इसका दूसरा पहलू भी देखिए। जब जन्म लिया तबसे पता है कि हमें मरना है तो क्या पूरी उम्र हम मृत्यु की प्रतीक्षा में बिताते हैं। नहीं, हम जीते हैं। हम इस तरह से जीते हैं जैसे हम हमेशा के लिए जीवित रहने वाले हैं।
स्थायी पता
जबकि मूल बात तो यह है कि धरती पर हमारा कोई स्थायी पता नहीं होता। हम एक निश्चित कालखंड के लिए यहाँ विचरते हैं और गमन करते हैं। हर मशीन की तरह जब हमारी शरीर रूपी मशीन अपने वारंटी-गारंटी पीरियड को पूरा कर लेती है तो उसके बाद उसमें कुछ न कुछ मैंटेनेंस की दरकार होने लगती है और किसी दिन वह पूरी तरह काम करना बंद कर देती है।
हम मृत्यु के सत्य को स्वीकार कर भी ऐसे जीते हैं जैसे मृत्यु हमारे जीवन में लिखी ही नहीं। इसलिए कई लोग सेवानिवृत्ति के बाद कहते हैं कि जीवन कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। क्यों पता नहीं चला क्योंकि आपने प्रतीक्षा नहीं की थी। यदि आप मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहते तो आपके लिए जीवन जी पाना दुष्कर हो जाता।
जीवन का गीत
अस्पताल से असाध्य बीमारियों से लड़कर वे लौटे हैं जिन्होंने जीवन का गीत गाया है, जिन्होंने मृत्यु को नहीं स्वीकारा। जिन्होंने मृत्यु को स्वीकार लिया, वे अस्पताल से फिर घर नहीं लौटे। चिकित्सक या आम लोग भी कहते हैं कि विल पॉवर ने बचा लिया। विल पॉवर ने बचा लिया या मृत्यु की प्रतीक्षा ही नहीं की तो जीवन में लौट आए। आप प्रतीक्षा करते हुए मृतप्राय हो जाना पसंद करेंगे या आस को न टूटने नहीं देंगे…बताइए आप क्या चुनेंगे? चुनिए और साथ में सुनिए इसे भी-
‘आरज़ू...The Longing’ https://youtu.be/Uzr4nXW-AZE