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ठटकर ठ की बातें
वे दिन याद हैं जब किसी के यहाँ जाते थे तो दरवाज़े पर ठक-ठक करने की ज़रूरत भी नहीं होती थी, ठिठुरती सर्दियों की ठंडी दुपहरी में ठार (बहुत सर्दी) पड़ती, तो आँगन में हँसी-ठिठोली, हँसी-ठट्ठा और ठहाकों से गर्माहट आ जाती थी। अंताक्षरी खेलने पर जब भी ‘ठ’ आता तो दो ही गाने गाए जाते थे- ‘ठंडे-ठंडे पानी से नहाना चाहिए’ और ‘ठाढे रहियो’...उसके बाद ‘ठ’ आने पर खेल ठिठक जाता।
कहीं आना-जाना हो तो सार्वजनिक परिवहन से ठसाठस ठूँस कर लोग आया-जाया करते थे, कहीं भीड़ जमा हो जाती तो ‘ठट लगना’ कहते थे और किसी को यह समझ न आए और उसे ‘ठस दिमाग’ कह देने पर वो भी बुरा नहीं मानता था, उसे एक मीठी-सी ठंडी चोट समझता था पर ‘ठस आदमी’ कहने पर बुरा मान जाता क्योंकि उसका अर्थ संबंधित को कंजूस कह देना होता है। फिर वह अपनी ठसक (अभिमान) दिखा देता।
‘ठ’-ठठेरे का
‘ट’ वर्ग का यह व्यंजन भाषा विज्ञान की दृष्टि से मूर्धन्य, स्पर्श, अघोष और महाप्राण ध्वनि का है। हमें तब यह सब कहाँ पता था, हमें तो ‘ठ’-ठठेरे का आता था। अब न ठठेरा रहा, न ठाकुर-ठकुराइन के दिन। तब तो जो एकदम धीमी आवाज़ भी पहचान लेता उसे ‘ठठेरे की बिल्ली’ कहा जाता था और एक जैसे दो लोग एक-दूसरे को ही ठग लें तो ‘ठठेरे-ठठेरे बदलाई’ होना कहा जाता। कोई सूखकर काँटा हो जाए तो उसे ‘ठठरी होना’ कहा जाता।
अब ऐसी भाषा नहीं रही क्योंकि वैसे लोग नहीं रहे। तब जमकर बातें करने को ‘ठट कर’ बातें करना कहा जाता था और ठठाकर हँसा जाता था। अब तो रिश्तों में ‘ठंडी-गरमी’ आ गई है। उन दिनों ने हमें ठुकरा दिया या हमने उन दिनों को ठग लिया ऐसे कि अब हम ही ‘ठगे-से’ खड़े हैं। अब ‘ठंडी साँस भरने’ से क्या होगा, ‘ठंडी साँस खींचकर’ रह जाना होगा..वे दिन तो ‘ठंडे बस्ते’ में चले गए, हम ‘ठूँठ-से’ खड़े रह गए।
ठोक-बजाकर
‘ठ’ को ‘ठकुर सुहाती’ मतलब चापलूसी की बातें नहीं पसंद इसलिए ‘ठगमूरी खाने’ से कुछ नहीं होगा। ‘ठगमूरी खाना’ मतलब नहीं पता? इसका मतलब भी वही होता है, जो ‘ठगे-से रह जाने’ का होता है, मतलब चकित रह जाना। देशज भाषा में कहते थे ‘काहू तोहि इगोरी लाई बूझति सखी, सुनति नाहिं नेकहु तुही किधि ठगरमूरी खाई’। जो लोग चतुर होते थे वे अच्छी तरह ठोक-बजाकर, ठनकाकर चीज़ें लेते थे, फिर दुकानदार के साथ कभी-कभी ठन जाती थी। तब भी ‘ठन-ठन गोपाल’ को दुकानदार अपने यहाँ खड़ा नहीं करते थे।
कोई ‘ठर्रा आदमी’ होता तो साफ़ बात करता, ‘ठर्रा होना’ मतलब खरा होना होता पर ‘ठर्रा लगाने’ से इसका अर्थ न निकाल लेना। ‘ठर्रा लगाना’ मतलब देशी शराब पीना होता है। न जाने कब वे ठोक-पीट दें, वे ‘ठाएँ-ठाएँ’ भी कर सकते हैं, ऐसे लोगों को तो ठाला बता देना चाहिए, यानी ऐसे लोगों से बिना कुछ लिए-दिए दूर हट जाना चाहिए। ‘ठाला बता देना’ से अलग अर्थ होता है ‘ठाला होने’ का, ‘ठाला होना’ मतलब कमी होना।
ठाट-बाट
‘ठ’ से ठिगना है लेकिन उसके पास किसी बात की कमी नहीं है, वह ‘ठिकाने लगाने’ नहीं बल्कि अपने ठिकाने पर थोड़ा ठहरने को कहता है। ‘दिमाग ठिकाने पर आने’ जैसा वो कुछ नहीं करता बस ठुमककर अपने ठाट-बाट दिखा देता है। ‘ठ’ का ठाट यानी स्वरूप इस तरह तैयार होता है। वह कहता है कि ठाट से ज़िंदगी कट भी जाए तब भी संसार से जाते समय सारा ठाट यहीं पड़ा रह जाएगा। ठाट मारने (मौज करने) की बजाए हमें समय रहते अपना ठाट (वेष) बदल लेना चाहिए। कब ठाठ बिगड़ जाए, ठोकर लग जाए, कह नहीं सकते इसलिए ठाठ बाँधे (आक्रमण के लिए तैयार) रहना चाहिए।
किसी दिन जीवन का सारा कारोबार ठप भी पड़ जाए तो आप पर यह ठप्पा नहीं लगना चाहिए कि बस ठिलवई करते ठलुआ ही बने रहें और कुछ आपने किया ही नहीं। ठीक-ठाक जीते हुए ठहराव लेकर आएँ ताकि आपकी ठसक बनी रहे ताकि आपका ठीहा उठ जाने पर लोगों के मन में कसक रह जाए। ठोड़ी उठाकर पढ़िए, कविवर सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की पंक्ति ‘बाँधो न नाव बंधु, इस ठाँव रे, पूछेगा सारा गाँव’...ऐसी ही कसक जगा देती है। ठोस जीवन जीने के लिए इसीलिए कहा जाता है कि आपकी जहाँ कहीं भी ठौर हो, वहाँ आपका ओर-छोर भी रहे।
(भाषा परिशिष्ट में पढ़ सकते हैं अब तक के सारे वर्ण).......