जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए

जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए

रीना ने आठवीं कक्षा से नौवीं में जाने पर अपने लंबे बालों को कटवाकर छोटा कर लिया, उसे लगा हाई स्कूल में जाना यानी कि बड़े हो जाने की आज़ादी को वह इस तरह अभिव्यक्त कर सकती है।

सुरेश ने पहली तनख़्वाह अपने ऊपर दिल खोलकर खर्च की, उसके पैसे, उसकी आज़ादी थी।

सविता को हमेशा कहा जाता था तेरी जो भी इच्छा हो, अपने घर जाकर पूरी करना, अपना घर मतलब ससुराल और उसने शादी होने के तुरंत बाद सबसे पहले अपने लिए जींस पैंट खरीदी, उसे लगा अब वह खुलकर जीने के लिए आज़ाद हो गई है।

निभाना कठिन

लेकिन कुछ अगली कक्षाओं में जाने के बाद रीना को समझ आया केवल बाल कटवा लेने भर से आज़ादी नहीं मिल जाती, आज़ादी हासिल करना उससे कई गुना अधिक बड़ी बात होती है

सुरेश को दूसरे ही महीने समझ आ गया कि हाथ में चार पैसे आने की आज़ादी मिली है तो उसके साथ जवाबदारी भी है कि कुछ बचत भी करे, कुछ घर-खर्चे में भी हाथ बँटाए।

सविता ने जाना आज़ादी मिलने से ज़्यादा उसे निभाना कठिन होता है।

छुट्टी मारी गई

देश को भी यदि व्यक्ति के तौर पर देखें तो देश के साथ भी शायद ऐसा ही कुछ हुआ हो। सन् ‘47 में आज़ादी मिलने के साथ ऐसा लगा था कि 16 अगस्त 1947 से ही नए दिन के साथ नए युग का अवतरण हो जाएगा। दो सौ सालों की गुलामी और सन् 1857 से सन् 1947 तक के कई विद्रोहों के बाद 15 अगस्त का दिन गहनतम अँधेरे के बाद प्रकाश का दिन था, आज़ादी भी आधी रात को मिली थी जैसे नया सूरज नया उत्साह लेकर आया था।

धीरे-धीरे इन 74 सालों में हमने जाना कि आज़ादी मतलब खुशियाँ मनाना भर नहीं होता, उसके साथ बहुत सारी जिम्मेदारी, कर्तव्य और निष्ठा भी जुड़े होते हैं। हालाँकि कई सालों से लोगों को स्वतंत्रता दिवस का एक अर्थ सुबह झंडा वंदन, कुछ देशभक्ति गीत और दिन भर की छुट्टी लगता है। इस बार रविवार को 15 अगस्त आया है, ‘वर्क फ्रॉम होम’ करने के दौर में अब रविवार का उतना फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन लोग तब भी मायूस हो जाते हैं कि एक छुट्टी मारी गई।

नेशन फर्स्ट

आज़ादी के लिए कितने लोग मर-खप गए और उनके बलिदान को हमने कितना सस्ता बना दिया कि उसे केवल अपनी छुट्टी से जोड़ लिया। चूँकि इस दिन कोई वार-त्योहार नहीं होता तो लोगों ने इस दिन घूमने जाने का प्लान बनाना शुरू कर दिया कि ‘उड़े दिल बेफ़िक्रे’…हम इतने बेफ़िक्र क्यों हो गए?

‘नेशन फर्स्ट’ यह नारा तो बन गया लेकिन क्या वह हमारे जीवन में उतर पाया? क्या हमने मान लिया है कि देश की सुरक्षा जवानों पर, देश की जिम्मेदारी राजनेताओं को ही उठानी है, हमें नहीं? यदि ऐसा है तो दूसरा सीधा सवाल है कि हम क्यों नहीं देश की जिम्मेदरी उठाना चाहते? शलभ श्रीराम सिंह के गीत की पंक्तियाँ याद हो आती हैं कि ‘नफ़स-नफ़स क़दम-क़दम, बस एक फ़िक्र दम-ब-दम, घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए, जवाब-दर-सवाल है के इंकलाब चाहिए’।

स्वान्तःसुखाय

स्वामी विवेकानंद से उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कोई भी काम करना तो सोचना इससे कितने लोगों को लाभ होगा। क्या हम इस तरह की सोच रखते हैं? हम केवल अपने बारे में सोचते हैं। स्वान्तःसुखाय जीने का आनंद हमें बहुत भाता है। स्वान्तःसुखाय कुछ करने में कोई बुराई नहीं है, जब तक हमें किसी काम को करते हुए खुद आनंद नहीं आएगा, दूसरों को भी उससे आनंद नहीं मिलेगा लेकिन स्वान्तःसुखाय की परिणति लोक हिताय में होनी ही चाहिए जैसे महर्षि बाल्मीकि ने रामायण की रचना स्वान्तःसुखाय की थी पर क्या उसका दायरा केवल उनके आनंद तक सीमित था/है?

मेरा, मैं

हम क्या कर रहे हैं, उसके क्या परिणाम होंगे, उसका परिणाम कितने लोगों पर और कैसा पड़ेगा इस बारे में हर क्षण सोचना ही चाहिए। हम जाने-अनजाने अपने आसपास के लोगों के सामने आदर्श रखते हैं इसलिए हमें बहुत सचेत और सतर्क रहना चाहिए कि हम कैसा आदर्श रखते हैं।

‘मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी’, ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’, ‘…मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ ..क्रमशः रानी लक्ष्मीबाई, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस इन्होंने जो नारा दिया उसमें ‘मैं’ है लेकिन यह ‘मेरा, मैं’ भर नहीं है, इसमें आज़ादी का शंखनाद है, क्रांति का बिगुल है। क्या हमारे पास ऐसा कोई नारा है, बिल्कुल अपने लिए ही, लेकिन ऐसा घोषवाक्य जो निज के लिए होकर भी बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय हो। बताइएगा क्या आपका अपने खुद के लिए ऐसा कोई ध्येय वाक्य है? कोई ध्येय वाक्य सोचा है, खोजा है, सोचना, खोजना चाहेंगे?