सेल्फ़ प्रोजेक्शन

सेल्फ़ प्रोजेक्शन

खुद को अपने ही हाथों मार डालने का कदम

व्हाट्स ऐप पर नया डीपी, इंस्टा पर नई पोस्ट, एफबी पर स्टेटस चेंज और ट्विटर पर अपने नाम से कोई कमेंट..हर जगह दिखते रहने की चाह में अब सिग्नल, टेलीग्राम जैसे कुछ और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की बढ़ोत्तरी भी। यह आत्ममुग्धता के चरमोत्कर्ष का युग है। पहले लोग एक-दूसरे की तारीफ़ इस आशा में किया करते थे, कि इसने उसकी की, तो वह भी इसकी कर देगा, ‘अहो रूपम्, अहो ध्वनि’ की तरह

लेकिन अब किसी को इस बात की ज़रूरत नहीं रही कि कोई उसकी तारीफ़ करे। हर कोई खुदबखुद अपनी तारीफ़ कर लेता है। अपने गुणगान गा लेता है। फ़िल्टर जैसे सारे टूल्स का प्रयोग कर जो जैसा नहीं है, वैसा बनने और दिखने की कोशिश करता है। शो ऑफ़ की बात होती तो भी चल जाता कि वो कभी-कभार किसी पर प्रभाव डालने के लिए किया जाता हो लेकिन अब तो जैसे सातों दिन 24 घंटे हर कोई अपने सैल्फ़ प्रोजेक्शन में लगा हुआ है

आइडेंटिटी क्राइसिस

मनोवैज्ञानिक इस पर अधिक भली प्रकार से प्रकाश डाल सकते हैं। मोटे तौर पर जो समझा जा सकता है वह तो यह है कि यह आत्महंता की स्थिति है। आत्महंता याने खुद को अपने ही हाथों मार डालने का कदम। खुद की प्रशंसा करना मतलब मरना कैसा हुआ? आत्म प्रशंसा आपको आपके अस्तित्व से बहुत अधिक जोड़ देता है। आप अपनी ही ऐसी छवि गढ़ते चले जाते हैं, जो सच नहीं होती, सच के करीब भी नहीं होती लेकिन आप उसे गढ़ते चले जाते हैं

उसके अलग चरण में आइडेंटिटी क्राइसिस होता है। आप समझ नहीं पाते कि जो छवि आपने गढ़ी है आप वे हैं या जो नहीं दिख रहा लेकिन जैसा महिमामंडन आपने खुद का कर लिया है, वो आप हैं। उसके बाद वास्तव में आप जैसे हैं, वैसे नहीं होते, वैसे महसूस नहीं कर पाते और दर्द से घिरते चले जाते हैं। किसी ज़माने की बड़े परदे की नायिका परवीन बॉबी की मौत जिस रहस्यमय ढंग से हुई थी, वह याद होगा ही। आउट ऑफ़ साइट, आउट ऑफ़ माइंड हो जाने का ख़तरा भले-भले सहन नहीं कर पाते

अपनी ही छवि में कैद

यह खतरा क्यों होता है? क्योंकि हम अपने नाम, अपनी छवि में खुद ही कैद हो जाते हैं। प्रकृति के पास जाकर देखिए। वृक्ष तटस्थ खड़े होते हैं और तब भी उनके पास हवा, मिट्टी, पानी, सूर्य की रोशनी पहुँचती है लेकिन हम खुद को अति समझदार मानते हुए प्रकृति पर विश्वास नहीं कर पाते। हमें लगता है कि कुछ भी हमें अपने आप नहीं मिलेगा इसलिए हम संघर्ष में जुट जाते हैं। यह संघर्ष हमने खुद अपने लिए आमंत्रित किया हुआ है। जो है, जितना है, उससे हम संतुष्ट नहीं हैं। और अधिक की चाह ही हमें परेशानियों में डाल देती है।

यह उन सारी तस्वीरों में देख सकते हैं जो हम सोशल साइट्स पर डालते हैं। उसकी पृष्ठभूमि आभासी होती है। मतलब हो सकता है उतनी अच्छी जगह आप न गए हों, जितनी आप उस तस्वीर में दिखाना चाह रहे हैं, हो सकता है आप खुद भी उतने अच्छे न हों, जितने अच्छे आप तस्वीरों में दिख रहे हैं।

झूठ की ढाल

जैसे भीतर है, वैसे बाहर हो जाइए। अच्छे-बुरे आप जैसे भी हों, वैसे ही बने रहें। पहले के ज़माने में चेहरे पर लाली-पाउडर लगाना अच्छा नहीं समझा जाता था, क्या वजह रही होगी उसकी,कभी सोचा है? आप जैसे हैं, वैसे बने रहें। अपने चेहरे पर कोई रंग-रोगन न करें, मतलब बनाव-छिपाव न रखें। क्या आज के युग में ऐसा जी पाना संभव है?

कुछ कदम बढ़ाकर तो देखिए। अपनी ज़रूरतों को कम से कम कर लीजिए। अपनी कम से कम तस्वीरों को सोशल साइट्स पर साझा कीजिए। देखिए कितनी शांति मिलेगी। कम में रहने की आदत डाल लीजिए। जिस ढाल के पीछे आप अपनी सच्चाई को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं, झूठ की उस ढाल को फेंककर सच से दो-चार कीजिए। विश्वास रखिए इसमें अधिक साहस की ज़रूरत होती है और आप योद्धा हैं, तो आप साहस से इसमें जीत सकते हैं।