शर्म से कैसे उबरें?

शर्म से कैसे उबरें?

जीवन में हम दुःखी क्यों होते हैं तो उसकी सबसे बड़ी वजह है जब हमें शर्म महसूस होती है। यदि हम अपनी ग़रीबी, तंगहाली, पारिवारिक परिस्थिति, परीक्षा के तनाव या शादी न हो पाने या शादी न निभ पाने किसी भी वजह से दुःखी हैं तो उसकी जड़ में हमें शर्म का भाव मिलेगा। हम अपने हालातों से उतने दुःखी नहीं होते बल्कि इसलिए अधिक दुःखी होते हैं कि वे हम किसी को दिखा नहीं सकते। उन्हें दिखाते हुए हमें शर्म महसूस होती है और किसी को पता तो नहीं चले कि उधेड़बुन हमें जीने नहीं देती।

यदि लोगों के सामने आपकी असलियत आ चुकी है तो भी आप लोगों से आँख मिलाने से कतराने लगते हैं। यह बात चोर-उचक्कों तक पर लागू होती है। आप उन्हें कितना भी बेशर्म कह लीजिए लेकिन भीतर से वे भी जानते है कि वे ऐसा कोई काम नहीं कर रहे जिसे शान से बताया जा सके इसलिए वे चोरी करने में सफल भी हो जाएँ या उठाईगिरी से बहुत पैसा भी कमा लें तब भी सुखी नहीं हो पाते। तो ऐसा काम कीजिए जिसे करने में आपकी आत्मा, आपके मन को शर्मिंदा न होना पड़े।

अब सवाल यह है कि इस शर्म से कैसे उबरें? इसके दो रास्ते हैं। एक तो आप हालातों को स्वीकार कर लीजिए। आपकी ग़रीबी किसी से छिप नहीं सकती तो झूठी शान मत बघारिए। आपको परीक्षा में कम अंक मिले हैं तो उसे स्वीकार कीजिए। इस परीक्षा में असफल हुए तो क्या अगली परीक्षा की तैयारी कीजिए। आपने तैयारी ही न की हो और आपको कम अंक आए हो तो उसमें दोष किसका इस पर भी विचार कीजिए।

मतलब या तो आप स्वीकार कीजिए या उबरने की कोशिश कीजिए। तब आपको शर्म महसूस नहीं होगी। स्वीकार करने से बड़ा सुख कुछ नहीं है। ऐसा करना अल्प संतोषी होना नहीं बल्कि संतुष्ट होना, थोड़े में सुखी होना है। यदि आप इससे अधिक पा सकते हैं तो उसके लिए दिलो-जान लगा दीजिए पर कुछ चीज़ें बदली नहीं जा सकतीं, तो उन्हें वे जैसी हैं, उसी तरह स्वीकार कीजिए।

कोयल हमें इसलिए प्रिय है कि वह अच्छा गाती है, फिर हमारा ध्यान उसके रंग की ओर नहीं जाता क्योंकि हमें पता है काकः कृष्णः पिकः कृष्णः ..कौआ और कोयल दोनों काले हैं, हम स्वीकार करते हैं। हम चाँद की खूबसूरती के कसीदे कसते हैं, तब उसके दाग नज़रअंदाज़ हो जाते हैं, ठीक उसी तरह आपके पास जो है उसके लिए शुक्राना करना सीखिए, शिकायत करना नहीं।

हम गुलाब के पास जाते हैं तो काँटों से खौफ़ नहीं खाते, कमल को देखते हुए कीचड़ की बात नहीं करते, तो अपने जीवन में शर्म करते रहने के बजाय उससे उबरकर क्यों नहीं सोचते। यदि कोयल का काला रंग, चाँद के दाग, गुलाब के काँटें, कमल का कीचड़ हम पर हावी नहीं होता तो हमारी अक्षमता, असमर्थता को हम खुद को हावी क्यों होने दें, उस पर शर्म क्यों करें। जो है, सो है, उसे उसी तरह स्वीकारने में ही उसकी नज़ाकत, सुंदरता है।

हाथों की पाँचों अंगुलियों की तरह, अँगूठा चारों अँगुलियों से अलग है और चारों अँगुलियाँ भी कहाँ एक जैसी हैं फिर भी हम उन्हें अंगूठियों से सजाते, उन पर मुग्ध होते हैं न या उन्हें छिपाते और उनके बड़े-छोटे होने पर शर्मिंदा होते हैं, सोचकर देखिए, अपने विचारों से हमें भी अवगत कराइए।