जीवन का यह षड्ज स्वर

जीवन का यह षड्ज स्वर

बारहखड़ी

ष षा षि षी षु षू षृ षे षै षो षॉ षौ षँ षं षः

जैसे हमारे यहाँ षोडश संस्कार, षोडष दान का महत्व है,वैसा ही महत्व षष्ठीपूर्ति का है। कोई अपने जीवन के साठ साल पूरे कर लेता है तो यह आयोजन किया जाता है, तब इसका महत्व अधिक था जब मनुष्य का औसत जीवन काल कम हुआ करता था। यह जीवन की सांध्य वेला का जैसे षड्ज स्वर है।

संगीत के सात स्वरों में से चौथे स्वर को षड्ज कहा गया है। संगीत में इसके छह उच्चारण स्थान नासा, कंठ, उर, तालु, जिव्हा और दंत कहे गए हैं इसलिए इसे षड्ज कहा गया। वैसे भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह मूर्धन्य, अघोष, संघर्षी है। ‘ष्‌’ व्यंजन संस्कृत भाषा की विशेषता है। हिंदी में इसका मूर्धन्य उच्चारण विलुप्त है और ‘श्‌’ (शकार) के समान ही ‘ष’ (षकार) का उच्चारण पाया जाता है।

यह देवनागरी वर्णमाला के ऊष्म वर्णों के वर्ग का दूसरा व्यंजन है। हिंदी के तत्सम (संस्कृत) शब्दों में षकार का प्रयोग आरंभ या मध्य में ही दिखता है। जैसे- षट्, विषय। व्यंजन-गुच्छों में जब ‘ष’ पहले आकर अन्य व्यंजनों से मिलता है, तब उसका रूप ‘ष्‌’ हो जाता है और प्राय: ‘क, ट, ण, प, फ, म, य, व’ से उसका योग देखा जाता है। जैसे- शुष्क, कष्ट, निष्ठ, निष्णात, पुष्प, निष्फल, भीष्म, भविष्य।

न जी हम आपको व्याकरण पढ़ाने का षड्यंत्र कदापि नहीं कर रहे हैं। हम तो षट्कोण के षड्दुर्ग में पसरे षडानन षट्कर्मा ‘ष’ से आपको मिलवा रहे हैं। यदि इसके षड्दर्शन नहीं किए तो षडरिपु आपको परेशान कर सकते हैं।

संस्कृत में 'ष' को 'श' और ‘ख़’ के बीच की एक ध्वनि समझा जा सकता है (ये तीनों ही संघर्षी वर्ण हैं)। 'ख़' और 'ख' दोनों कण्ठ्य ध्वनियाँ हैं और हिंदी में 'ख' हिंदी में प्रचलित है। इस वजह से जब 'ष' का संस्कृत उच्चारण हिंदी से लुप्त हुआ तो कुछ प्राकृत उपभाषाओं में 'ष' और 'क्ष' (यानी 'क'+'ष') के स्थान पर 'ख' कहा जाने लगा। हिंदी में ऐसे बहुत से तद्भव शब्द हैं जिनमें संस्कृत से दो चीज़ें हुई हैं: जैसे शुष्क का सूख या सूखा हो गया। पर इसके षट् रसों का आस्वाद षोडशोपचार के षटकर्मों में दिखता है। यदि आपने षट्मासिक ही सही इसका षष्ठांश भी ग्रहण कर लिया तो षड्भुजीय षटतिला आपको मिल सकती है।

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शे ‘ष’ फिर…