‘श’ का शीर्षक क्या दिया जाए?

‘श’ का शीर्षक क्या दिया जाए?

‘वशंतशेना रुक जाओ वशंतशेना, वशंतशेना’…शूद्रक लिखित संस्कृत नाट्य साहित्य के सबसे प्रसिद्ध रूपक ‘मृच्छकटिकम्’ (अर्थात्, मिट्टी का खिलौना या मिट्टी की गाड़ी) का पहला अंक (अलंकारन्यास) इस वाक्यांश से शुरू होता है जिसमें राजा का साला शाकार(शकार) उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका वसंतसेना को पाना चाहता है। वह अपने दो साथियों के साथ शीघ्रता से एक अँधेरी रात में वसंतसेना का पीछा करता है। वह ‘स’ को ‘श’ बोलता है इसी कारण शकार नाम से समाज में पहचाना जाता है।

देखा जाए तो कितने ही लोग ऐसा बोलते हैं जैसे बांग्ला भाषा में ‘रशोगुल्ला’ सुनना भी ‘भालो बाशी’ लगता है। शास्त्र कहता है ‘श’ (तालव्य) का उच्चारण जीभ के तालु से स्पर्श से होता है, ‘ष’ (मूर्धन्य) के उच्चारण में जीभ मूर्धा को स्पर्श करती है और ‘स’ (दंत्य) का उच्चारण जीभ द्वारा दाँतों के स्पर्श से होता है। देवनागरी वर्णमाला के ऊष्म वर्णों के वर्ग का यह पहला व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह तालव्य, अघोष, संघर्षी तथा ईषद्विवृत है।

‘शsशsशsशs...’

किसी की शादी के बाद शहनाई के शुभागमन पर सबको चुप कराना हो तब शब्दकोश से यह अपनी शैली में ‘शsशsशsशs...’ कहकर शुरू हो जाता है। शव समान पड़ी अहल्या (अहिल्या) नामक शीला को शुभ जीवन भी यह देता है और शिवाभिषेक की शोभा भी इससे है। शंखनाद कर शरसंधान (निशाना लगाने) की शर्त इससे लगाई जा सकती है।

शैशवकाल में यह शिशु शाला की शिक्षा में सिखाया गया यह ‘श’, शकर का, शून्य का, शुतुरमुर्ग का है। शिक्षक के सामने शिष्य का शीश नमाना इससे है और किसी का गर्व से शेर बच्चा बन जाना भी इससे है। श्वान की तरह शिकार पर निकल पड़ना या शाकाहारी होना आपका चयन है। पर यह शेरदिल से पूछता है आप अपने लिए श्मशान सी शांति चाहते हैं या किसी शूर शहीद-सी शौर्य मौत?

इसके पास भगवान् शिव-शंकर की शक्ति है। यह शैया पर शेषनाग-सा शांत है। यह कोई शाप नहीं देता। इसका शिष्ट शील और शराफ़त-शालीनता शाश्वत है। तय आपको करना है कि आप अपने नाम का शिलान्यास कराना चाहते हैं या शिलालेख हो जाना।

इसका शतदल

इसके शतदल में कोई शायर है तो किसी के हिस्से आई शंकु-सी त्रासदी भी। शताब्दी में कोई शख़्स शैतानी से शतरंज की शह-मात की शुरुआत करना चाहे तो शहर में शोर बरप सकता है, फिर शिकंजा कसना, शांति स्थापित करना या शोषण का शमन करना कठिन है।

किसी शहज़ादे के शर्मसार होने पर यह शीशा दिखा देता है। शिकायत करना भी शर्मनाक लगता हो तो जान लें इस पर चलना शोलों पर चलने जैसा है तो इसको जीना बिल्कुल भी शुष्क नहीं, बल्कि शरबत-शिकंजी पीने जैसा शीतल है, शिमला-मिर्च, शलजम जैसा गुणकारी है, यह शकरकंद, शहतूत, शहद और शीरे जैसा शुद्ध मीठा है और शुभचिंतक बनकर शराब न पीने की शपथ तो यह शत्रु को भी दिला सकता है, वरना जानलेवा होने पर शल्य चिकित्सा करानी पड़ सकती है।

शिखर का शीर्ष

शायद शिखर के शीर्ष से आपने भी देखा हो कि शानदार तरीके से शिरोमणि-सा ‘श’, कितनी ही बार शब्दों के बीच में भी आता है जैसे इस ‘प्रश्न’ में ही कि इस लेख का शीर्षक क्या दिया जाए? किसी शौकीन शाह शासक के इशारे पर किसी शुक्रवार की शाम शीशम का शज़र (दरख़्त) भी रोशन हो जाता है और शनिवार की शबनम में उसे देखने का कोई शुल्क नहीं लेता, तभी तो आप शुक्रिया कह पड़ते हैं। ‘श’ का शासन शरीर विज्ञान में इसे शारीरिक क्रियाकलापों से जोड़ता है। अंग्रेज़ी को ‘इंग्लिश’ कहते हुए यह शब्द के अंत में आता है और शूटिंग, शिपमेंट जैसे कई अंग्रेज़ी शब्दों में भी शामिल है।

शुभकामनाएँ

जिन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, उन्हें यह ढपोर शंख नहीं कहता बल्कि जिस शमी के वृक्ष की शाखाओं में पांडवों ने कभी शस्त्र रखे थे, उन पत्तों के शगुन के साथ अपने जीवन का शिल्पकार बनने की शुभकामनाएँ देता है। शिथिल हो जाने पर इसकी शरण ले किसी शिविर में शिरकत करने से न तो शरमाना चाहिए न किसी तरह के शकुन-अपशकुन का शक या शंका होनी चाहिए। इससे शोक है तो शांति दूत-सा शोध भी इसके पास है। इस शशि शेखर की शेखी की शरारत की शिनाख़्त करने निकलेंगे तो इसके शबाब से शनैःशनैः शमशेर हो जाएँगे। आप बताइए आप इसकी शुचि में शरीक होना चाहेंगे या अब शुश्रूषा से थककर श्वास थाम शयन करना चाहेंगे?

‘शे’ष फिर..