पूरे समाज के रूप में हम पूरी तरह असफल

पूरे समाज के रूप में हम पूरी तरह असफल

एक फार्वर्डेड मैसेज था, पुणे की करिश्मा सोसाइटी में किसी किशोरी से कोई अनजान पता पूछ रहा था, वह अंग्रेज़ी में बात कर रहा था, इसलिए डीसेंट लग रहा था। उसने पता समझ न पाने का बहाना बना किशोरी को अपने साथ चलने के लिए कहा। किशोरी को अंदेशा हुआ और वह सतर्क हो गई।

संदेश में ऐसा क्या

किशोरियों तक यह संदेश इस फुटनोट के साथ पहुँच रहा था कि इसे सोशल मीडिया के स्टेटस पर लगाए और प्रसारित करे। सचेत करने, आगाह करने के इस संदेश को लेकर कोई दिक्कत नहीं। हालाँकि यह संदेश दिनांक आदि के साथ सत्यापित नहीं था और यह किसी अन्य शहर में किसी अन्य सोसाइटी के नाम से भी अग्रेषित हो सकता था। तो इस संदेश में ऐसा क्या था?

हिंदी का पिछड़ापन

एक तो यह बात कि वह अंग्रेज़ी में बात कर रहा था इसलिए डीसेंट लगा। सितंबर को राजभाषा मास के रूप में जाना जाता है, वह मास अभी-अभी बीता है। बड़े-बड़े आयोजनों में बड़ी-बड़ी बातें हुई होंगी उस परिप्रेक्ष्य में यह छोटी-सी बात बड़ी अभिव्यक्ति है कि अंग्रेज़ी भाषा हमें सभ्यजन की भाषा लगती है, मतलब हिंदी या देश की अन्य भाषाओं को बोलने वाले पहली नज़र में हमें असभ्य लगते हैं। दूसरे अंग्रेज़ी बोलने वाले को हम सुशिक्षित भी मान लेते हैं, हिंदी का पिछड़ापन यहाँ भी दिखता है। अंग्रेज़ी बोलने वाला विद्वान, सभ्य, सुसंस्कृत कैसे सिद्ध हो जाता है और उसकी तुलना में हिंदी कितनी दीन-हीन दिखती है, यह लंबी चर्चा का विषय हो सकता है, आज़ादी के 75 सालों बाद भी इस पर चर्चा होना विडंबना भी है।

जिस्म से परे

खैर, इस संदेश का दूसरा पहलू देखिए। अभी भी हम लड़कियों को ही सतर्क कर रहे हैं। हम उन्हें चेता रहे हैं कि भोली न बनी रहें। उनके भोलेपन को हम चालाकी में बदलना चाहते हैं। हम उनके लिए ऐसी दुनिया क्यों नहीं बना पा रहे कि भोली बनी रहे और दुनिया भी उतनी ही मासूम होगी। हम उनके मन में जाने-अनजाने इतना डर क्यों पैदा करते चले आ रहे हैं? हम लड़कों को यह सिखाने में कामयाब क्यों नहीं हो पा रहे है कि लड़की मतलब केवल आकर्षण या लड़की मतलब केवल उसकी देह और उसका उपभोग करना नहीं होता है। लड़की जिस्म से परे होती है। हम लड़कों को क्यों नहीं बता पा रहे कि किसी लड़की के मन तक जो पहुँच पाता है, वही उसकी देह तक पहुँचने में कामयाब हो सकता है। पौरुष किसी स्त्री की देह पर अधिकार नहीं है बल्कि उसके मन पर उसकी खुशी से राज करना है।

भय की घुट्टी

और इस तरह के कोई संदेश किन्हीं लड़कों तक नहीं जाते कि कोई लड़की उन्हें ठग सकती है। हम मानकर चलते हैं कि लड़कियाँ ऐसा दुराचार नहीं करेंगी। इसकी वजह यह नहीं होती कि हम उन्हें ग्रीन चिट दे रहे होते हैं बल्कि हमें पता होता है कि कुछ भी ऊँच-नीच (!) हो गई तो फँसना लड़की को ही है और लड़की आगे बढ़कर ‘आ बैल मुझे मार’ नहीं करेगी। हमने लड़कों के मन में शौर्य के नाम पर यह बैठाया है कि उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा और लड़कियों को जन्म से भय की घुट्टी पिला दी है कि दोष किसी का भी हो, भुगतना उनको ही है।

शक़ के घेरे में

स्वस्थ समाज तो ऐसा होना चाहिए कि डीसेंट दोनों रहे और डीसेंट का चोगा पहनने वालों से खतरा दोनों को रहे। चूँकि हम ऐसा समाज नहीं बना पा रहे हैं तो एक पूरे समाज के रूप में हम असफल सिद्ध होते हैं। पूरे समाज के तौर पर हमारे लिए यह ‘चुल्लू भर पानी में डूब मरने’ जैसी बात है कि हमारे यहाँ लड़कियाँ अब भी असुरक्षित हैं, खुद को असुरक्षित महसूस करती हैं। जब निर्भया कांड हुआ था तो हर लड़का शक़ के घेरे में आ गया था और तब से आज तक भी लड़कियाँ निर्भय होकर नहीं जी पा रही हैं, उसके पहले तंदूर कांड और न जाने ऐसे कितने कांड हैं जो लड़कियों के मन में लड़कों के प्रति भय जगाते हैं। आधी जाति को दूसरी आधी दुनिया से डर लगता हो तो जिस दुनिया से उन्हें डर लग रहा है, उन पर जवाबदारी और अधिक है कि वे डर को नहीं विश्वास को जगाएँ।

लानत है

मीता जिस स्कूल में पढ़ती थी, वह लड़के-लड़कियों का स्कूल था और हर साल स्कूल में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता था। क्या यह ज़रूरी है कि भाई बनकर ही रक्षा की जा सकती है? क्या पुरुष के मित्र होने से ख़तरा है? क्या वह दोस्त बनकर रक्षा नहीं कर सकता? और इंसान की इंसान से रक्षा करने की ज़रूरत ही क्या है? डर हो तो चतुष्पद से हो, द्विपद से डर है तो लानत है उस समाज पर। कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई। मीता और संगीता जब बच्चों की माँ बनीं तो मीता ने अपनी बेटी से संगीता के बेटे को राखी बँधवा दी कि दोनों बच्चे साथ बड़े होंगे और उनके मन में कुछ और विचार आए उससे पहले उन्हें भाई-बहन के रूप में प्रतिस्थापित कर दो।

थोपे हुए संस्कार

इस तरह के थोपे हुए रिश्ते और थोपे हुए संस्कार कई बार खोखले होते हैं। और रिश्तों को थोपने की ज़रूरत क्यों आन पड़ती है, तो उसके पीछे वही डर छिपा होता है, वही संवाद छिपा होता है कि ‘चाकू तरबूज़ पर गिरे या तरबूज़ चाकू पर, कटना तरबूज़ को ही है’। लड़के कब तक चाकू बन डराते रहेंगे? क्या लड़के वैसे दोस्त नहीं हो सकते, जैसे खरबूजे होते हैं, जहाँ ‘खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदलता है’। कितना सुंदर होगा यदि यह समन्वय साधा जा सके।

और नवरात्रि...

माँ दुर्गा की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्रि 7 अक्टूबर से शुरू हुआ है। एक ओर इसी समाज में कन्याओं को देवी दुर्गा के नौ रूपों में मान उनकी पूजा की जाएगी, उन्हें जिमाया जाएगा और दूसरी ओर इसी समाज वे अपने आपको असुरक्षित भी पाती हैं। वे शक्तिरूपा हैं तो उन्हें डर कैसा? क्या हम उन्हें इस तरह तैयार नहीं कर सकते कि वे भी असुरों का संहार कर सकें! उन्हें जिनसे ख़तरा है, क्या वे ख़ुद उनके लिए ख़तरा नहीं बन सकतीं? हम उन्हें इस तरह क्यों नहीं तैयार कर पा रहे हैं??