सस्नेह, ससम्मान स्वागत ‘स’ का

सस्नेह, ससम्मान स्वागत ‘स’ का

बारहखड़ी

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इस सदी के समय को कोई संपादक सारे संसार के समाचारों के संचार के समसामयिक संचालन के समकालीन सदुपयोग कह सकता है। यह सिरदर्द न हो जाए इसलिए समाचीन समालोचना-समीक्षा का सर्जन समायोजित कीजिए। सर्वदल की सलाह से सर्वमान्य सयाने को सम्राट-साम्राज्ञी के सरगने का सिरमौर सरताज बने रहने दीजिए। सिर्फ़ इसका सिक्का बजने दीजिए। अपनी सरमायदारी में सहजता-सरसता-सरलता रखिए। सरहद तक फैली सरसों की सीमा आपकी ही है। पर सरेआम, सरेबाज़ार सर्वज्ञाता होने का ढिंढोरा मत पीटिए। सर्वप्रथम सम्यक् विचार कीजिए। सायंकाल के साये के बाद सबको सही-सलामत नई सुबह, नए सवेरे का साहिल मिल जाए, ऐसा सविनय कहिए।

‘स’ के संस्कार कई तत्सम संज्ञा शब्दों में सांद्र दिखते हैं, जिनसे पहले जुड़कर यह अनेक सार्थक शब्दों का संघ/ संकलन बनाने की क्षमता रखने के कारण सायास अत्यंत व्यापक प्रयोग वाला उपसर्ग बन गया है जैसे- सपरिवार, सपत्नीक, सस्नेह, ससम्मान, सचित्र, सचेत, सतेज, सजग, सजीव, सशरीर, सशक्त, सवेतन …यह सरिता के स्रोत में, समुद्र के नीले-सफ़ेद रंग में है। देवनागरी वर्णमाला के ऊष्म वर्णों के समुच्चय वर्ग के इस तीसरे व्यंजन का संप्रेषण भाषाविज्ञान में वर्त्स्य, अघोष, संघर्षी के रूप में होता है। प्राय: ‘श’ को ‘तालव्य श’, ‘ष’ को ‘मूर्धन्य ष’ और ‘स’ को ‘दंत्य स’ कहकर तीनों वर्णों में अंतर स्पष्ट करना सरल होता है। बोलने या लिखने में असावधानी से ‘स’ के स्थान पर ‘श’ या ‘श’ के स्थान पर ‘स’ के प्रयोग में कभी तत्सम शब्द तद्भव हो जाता है।

जैसे- शिर-सिर, दश-दस, तो कभी भिन्न अर्थ वाला शब्द बन जाता है जैसे- सील-शील, शाल-साल। यह साले और साढ़ू को साहब कहलवा देता है, समधियों का सोहनपापड़ी खिलाकर स्वागत-सत्कार, सुस्वागतम् भी इससे होता है, किसी स्त्री के लिए सौतन का सौतिया डाह तो ससुराल में सुहाग और सास-ससुर की साख, संरक्षण बन जाता है। यह साँवले साजन की सौंदर्यवती सुंदर सजनी के सिंदूर लगे सिंगार स्वप्नों को सुप्त आँखों में सजने देता है। जीवन के सहगामी-सहचर और सहोदरों के साथ सपनों के सरायगाह में यह सुधापान से सराबोर करता है। सहानुभूति रखते हुए इन सहसंबंधों को अपना सहारा बनाइए। सिल्क की साड़ी पहनी सिलबट्टे से चटनी बनाती सीता मैया से संबंध बोधक कराता यह सींगदाने खाते सिरफिरे सीनाजोर पूत को सपूत और सुत बनाता है, तो सूत के तागे स्वरूप समाज-दर्शन सुलझा देता है।

व्यंजन-गुच्छों में साहूकार के सूद की तरह पहले आकर अन्य व्यंजनों से मिलता है, तब साधारणतया उसका रूप ‘स्‌’ होता है (स्कंद, स्तुति, स्नान, हास्य, स्वर) परंतु ‘र’ से मिलने पर ‘स्र’ होता है, जैसे- स्रष्टा, सहस्र। तीन व्यंजनों का गुच्छ ‘स्त्र’ (स्‌ + त्‌ + र्‌) बहुत शब्दों में प्रयुक्त होता है जैसे स्कंद या अन्य पुराणों में आकर ये शब्द- अस्त्र, शस्त्र, वस्त्र बन जाते हैं। संस्कृत शब्दों की सघनता होने भर से इसे सांप्रदायिक नहीं कहा जा सकता। इस मामले में यह बहुत संवेदनशील है। यह साखी और सबद की तरह सर्वव्यापी है। इसे समझना सर्प-सा सर्पीला या घुमावदार सीढ़ीनुमा न होकर सरिये-सा ठोस, सीताफल-सा स्वादिष्ट है। अब सब्जीमंडी में जाने का सबब मत दे दीजिए, उससे तो सोलह सोमवार कर सौराष्ट्र के सोमनाथ में सिंहस्थ हो आइए। इसके विस्तार को सिकोड़ा नहीं जा सकता। ‘स’ के संगीत के सितार, संतूर, सारंगी के सुरीले साज़ों को सधने दीजिए।

सभ्य और समझदार बनिए। ‘स’ के स्वर्ण पर सर्राफ़े में कोई सुनार ही ‘सोने पर सुहागा’ लगवा देता है। किसी स्थान से लाई गई स्मरणीय सागवान की किसी संग्रहणीय वस्तु को चमकाना हो तो इसके पास साबुन है, सिरका है। स्वावलंबी ‘स’ का द्वित्व किस्म, क़िस्सा, ग़ुस्सा, रस्सा में देखा जा सकता है। स्वाभिमानी ‘स’ का सिपाही तो नहीं चाहता लेकिन सुविधा-सहूलियत के लिए 'सँ', ‘साँ’ इत्यादि अनुनासिक रूपों में ‘चंद्रबिंदु’ के स्थान पर ‘बिंदु’ लगाया जाता है जैसे सरकंडे का सिंघाड़ा, सोंठ या सोंध लिखा जाना।

इसके सिद्धांत सिद्धहस्त कर लीजिए और सितारे की तरह चमकने लगिए। फिर यह कोई सितम नहीं ढाएगा। साक्ष्य मानकर ‘स’ के सांकेतिक साक्षात्कार की इसे साक्षरता जानिए। संजोग से इसके सान्निध्य में रहकर पढ़ना स्नातकोत्तर करने जैसा है, कुटाई होने की सिहरन से कोई सिसकता है तो इसका होना सिकाई करने जैसा है।

चतुर सियार संबोधन तो आपने सुना ही होगा। सकपकाकर, सूरत-सीरत देख अब आप संदर्भ लगा यह न कह पड़ना कि उसकी कहानी सुनाने की सिफ़ारिश न कीजिए। साहित्य से सीखी-सिखाई बातों के समकोण को समाहित कर उससे सीख लेकर स्थायी सुधार का सृजन संपीड़न से हो सकता है। यह हर स्पंदन में है, इसके संभाग नहीं किए जा सकते।

इसके संकुल में सौदागर है, सूबेदार है, सूर्यवंशी है, समाजवादी है, सैनिक है। सक्रियता संधारण की तो यह हर सूजन दूर कर देता है और स्वर्ग-सा सुख देता है। हमारे संविधान संस्थापकों की तरह यह समावेशी, स्वपोषी है। सभा में इसकी सत्ता स्वायत्त है। संगमरमर से सजे सचिवालय के सदन में स्थूल रूप से यह साझे सफ़ेदपोश सचिवों के सोफ़े पर पसरे स्वामी के सगे के सख्य से समतुल्य, समकक्ष देखता है।

सट्टे बाज़ार की सांख्यिकी के सूचकांक को सह संयोजन के संवेग से अपनी सूचना पर स्थिर रखने में यह सक्षम है। इसकी साहेबी सख़्ती, सकर्मकता, सकलता से सचमुच सकुचाइएगा नहीं, बल्कि सकुशल इसकी सच्ची सघनता का सगुण सघोष कीजिए। सजावटी भर नहीं इसकी सतयुगी सटीकता सुसज्जित है। सठियाएँ नहीं, सड़ियल भी मत बनिए, सतही सटर पटर छोड़ सजदा करने में सटपटाहट न रखिए, संकोच न कीजिए।

यह कभी सत्यानाशी कह सताएगा नहीं वरन् सत्यनारायण भगवान् की कथा का सत्व इससे सत्यापित है। सत्संग करने पर यह सद्गति देता है, स्वस्थ रखता है। सदाचरण करते हुए सदाचारी बनने का सदाबहार सदापर्णी सदका करते हुए सदा के लिए सदात्मा, सदानंद होने की सद्बुद्धि पाने की सदिच्छा रखेंगे, तो सदमा नहीं लगेगा। सदाशयता के सनातन सद्गुणी सिद्धस्थ सद्गुरु के सदुपदेशों सदृश सदैव सधर्मी साधनारत रखेंगे। उनकी समाधि पर सिर झुका दीजिए। समाधान मिल जाएगा।

सनद रहे सनकी सनसनाहट, सनसनी कुछ नहीं दिलवा सकती। मन की सनई (शहनाई) को किसी साधु की सधुक्कड़ी में बजने दीजिए। खुदा को विसाले-सनम कह उसके सन्निकट जाने से जीवन में सन्नाटा नहीं रहेगा, सन्निपात नहीं होगा। समर्पित हो जाइए फिर सप्ताह के सप्त दिनों को सतरंगी करने से सफ़र आसान हो जाएगा। बस ‘स’ के सबक का सबूत याद रखिए। समर में समवयस्कों के प्रति समवेत समदर्शी समरूप हो जाइए। समस्त को समा लिया तो कोई समांतर समानार्थक समानुपातिक समस्या समूल सिमट जाएगी। वैसे ‘स’ के समेट के समापन के लिए कोई समिति स्थापित कर सम्मोहक सम्मिलन समारोह करने के सर्वे में सर्वत्र समिश्र प्रतिक्रिया आ सकती है। सिलवट न पड़ने दीजिए।

‘स’ की सलोनी सर्वोत्कृष्ट सवारी पर सवाल न उठाइए, सलाम कीजिए। यह साढ़ेसाती तो कदापि नहीं बल्कि सात्विक साथ है। साधारणतः सबके सहयोग से यह सादगीभरा साधारण सहयोजन है, सही कहा न! तो जिनकी जान साँसत में है, उन्हें साहसी बनने की सांत्वना दीजिए कि यह गागर में सागर है। सामान्यतया ऐसा समापन सामान्यीकरण हो जाएगा। यह सारणीकृत सार है। सारस की तरह सासस्वत बन सारांश ग्रहण करने में ही सार्थकता है। इसके सिंहनाद को साष्टांग कीजिए। सिलसिला चलने दीजिए। वैसे सौ पन्नों तक इसे सींचते की सौगंध तो नहीं ली है, यह तो इसकी सौगात है।

संप्रति इति