गर्व से कहता हूँ ‘मैं हज़बैंड ऑफ़...’

गर्व से कहता हूँ ‘मैं हज़बैंड ऑफ़...’

बातों बातों में अनिवासी भारतीय मित्र कैलिफ़ोर्निया में रहते सॉफ़्टवेयर इंजीनियर अमित जोशी ने बताया अमेरिका में लड़कियों-महिलाओं को किसी की पुत्री या किसी की पत्नी सूचक संबोधन की आवश्यकता नहीं होती। मन में सवाल उपजा भारत इस तरह विकसित क्यों नहीं?

अमेरिका को आर्थिक तौर पर संपन्न राष्ट्र के रूप में जानने वाले क्या यह जानते हैं कि संपन्नता केवल आर्थिक नहीं होती, बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक रूप से भी जब कोई व्यक्ति या देश संपन्न होता है तो वह विकसित होता है या इन पाँच स्तरों पर जो विकसित होता है, वही संपन्न भी।

वास्तविक धरातल

अतीत की कड़ियों से टटोला तो कई पौराणिक आख्यान सामने आ गए जहाँ उमापति है, उमाकांत है, रमाकांत है, लक्ष्मीकांत है, सियाराम है, जानकी वल्लभ है और ऐसे ही कई नाम हैं, जिनमें विष्णु या शिव जैसे देवों को उनकी अर्धांगिनियों की वजह से जाना जाता है।

लेकिन वास्तविकता की धरातल पर यह कितना सही है? तब ग्राम पंचायत से सीधे सरपंच पति सिर उठाकर खड़ा दिखता है, लेकिन उसमें उसकी दबंगई है, स्वीकार्यता नहीं। पत्नी के नाम की पहचान से अधिक यह दंभ है कि पत्नी केवल छाया है, पति की हाथ की कठपुतली है

मामला अमेरिका का

तब विश्व हिंदी सचिवालय (मॉरिशस) के वैश्विक समन्वयक न्यू जर्सी के अनूप भार्गव अपनी बात रखते हुए कतील शिफ़ाई का शे’र कहते हैं- ‘तुम्हारा नाम लेने से मुझे सब जान जाते हैं, मैं खोई हुई वो चीज़ हूँ, जिसका पता तुम हो’। मैं गर्व से कहता हूँ कि मैं हज़बैंड ऑफ़ रजनी हूँ।

वे बताते हैं मैंने इसकी पुष्टि रजनी भार्गव से ही की है और अमेरिका में किसी महिला के लिए ऐसा लिखना ज़रा भी अनिवार्य नहीं। भार्गव दंपत्ति की बात से सहमत हुआ जा सकता है लेकिन फिर यह मामला भी अमेरिका का है, भारत के संदर्भ में इस तरह की सोच तक दुरूह लगती है।

ऐसे कई उदाहरण

ऐसे में भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान( इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रॉपिकल मैट्रोलॉजी- IITM) और जलवायु परिवर्तन अनुसंधान केंद्र (सैंटर फ़ॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च सेंटर-CCCR), पुणे के वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद मुजुमदार पुष्टि करते हैं- मेरी पत्नी रीता सभी मामलों में मुझसे बढ़-चढ़कर है और मुझे इस बात पर गर्व है

दोनों पक्षों के बीच तालमेल हो, दोनों को अपनी अपनी जवाबदेही का अहसास हो, कार्य का सही नियोजन हो, अपेक्षाओं की वास्तविकता पता हो, एक दूसरे की हॉबीज़, स्किल्स का सम्मान हो और दोनों में दोस्ती का रिश्ता हो तो यह बिल्कुल संभव है। यदि ग़लत कह रहा हूँ तो पत्नी से पूछ लो।

हमारे विभाग की अश्विनी कुलकर्णी ऐसा ही एक अन्य उदाहरण है और ऐसे कई उदाहरण और भी हैं जैसे मंगला नार्लीकर, डॉ. सुलोचना गाडगील, डॉ. वीणा देव, डक्कन विभाग की डीएसपी डॉ.स्वप्ना गोरे जिनके पति गर्व से बताते हैं कि वे उनके पति हैं।

क्या संभव है?

बात केवल ‘हज़बैंड ऑफ़’ बताने भर की नहीं है, बात यह है कि कानूनन ऐसा करना कहाँ तक संभव है। बात यह है कि अमेरिका जैसे देशों या भारत के बड़े शहरों की बात छोड़ दें तो हमारे देश के छोटे शहरों, कस्बों, गाँवों में भी क्या ऐसा करना संभव है?

जैसे अमेरिका में किसी महिला के लिए यह लिखना अनिवार्य नहीं है कि वह किसकी पत्नी या बेटी है क्या भारत में भी बिना पति या पिता के नाम का सहारा लिए जीया जा सकता है।

माँ का नाम ही काफ़ी

सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता अरविंद जैन (नई दिल्ली) बताते हैं- अदालत ने एक फैसले में कहा कि अनब्याही माँ हो तो ऐसे मामलों में न केवल माँ का नाम ही काफ़ी होगा, बल्कि अनब्याही माँ को बच्चे के पिता की पहचान बताने की भी कोई ज़रूरत नहीं है। उच्चतम अदालत ने अपने आदेश में कहा कि जब भी एक एकल अभिभावक या अविवाहित माँ अपने बच्चे के जन्म प्रमाण पत्र के लिए आवेदन करे, तो सिर्फ़ एक हलफ़नामा पेश किए जाने पर बच्चे का जन्म प्रमाण पत्र जारी कर दिया जाए।

कोई सरोकार नहीं रखने वाले पिता के अधिकारों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण, नाबालिग बच्चे का कल्याण है। ऐसे मामलों में जहाँ पिता ने अपनी संतान के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है, उसे कानूनी मान्यता देना निरर्थक है। यह सरकार का कर्तव्य है कि प्रत्येक नागरिक के जन्म का पंजीकरण करने के लिए, आवश्यक कदम उठाए जाएँ। आधुनिक समय और समाज में माँ ही अपने बच्चे की देखभाल के लिए सबसे बेहतर है और शब्द ‘ममता’ इस भाव को व्यापक रूप से व्यक्त करता है।

न्याय की नज़र में

श्री जैन यह भी बताते हैं कि सबसे अधिक हास्यास्पद कानूनी प्रावधान यह है कि नाबालिग पत्नी का ‘संरक्षक’ उसका पति होता है, भले ही पति खुद ‘नाबालिग’ हो। कारण यह कि कानून अभी भी ‘बाल विवाह’ को पूर्ण रूप से ‘अवैध’ नहीं मानता। न्याय की नज़र में, ‘वैध’ संतान सिर्फ पुरुष की और ‘अवैध’ स्त्री की होती है।

और हमें इस सोच को बदलना है, हमें उस सोच को भी बदलना है जो उस मनुवादी सोच को बताती है कि स्त्री को हमेशा किसी संरक्षक की आवश्यकता है

‘पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यं अर्हति ।’

स्त्री को अपनी रक्षा खुद करनी चाहिए, उसे खुद पर विश्वास होगा तो लोग भी उस पर विश्वास करेंगे और उसे किसी दिखावे की ज़रूरत नहीं रहेगी।