जब किसी को पुकारा, कहा ‘ओsss!’

जब किसी को पुकारा, कहा ‘ओsss!’

‘ओ हसीना ज़ुल्फों वाली जानेजहाँ’ से लेकर ‘ओ हरे दुपट्टे वाली’, ‘ओ प्रिया प्रिया’ या ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौटके आना जाना’ से ‘ओओ जानेजाना’ तक और ‘ओ माझी रे, अपना किनारा’, ‘ओ साथी रे’ से ‘ओए ओए’ तक और ‘ओ मेरे दिल के चैन’, ‘ओ बाबुल प्यारे’, ‘ओ उड़े जब जब ज़ुल्फें तेरी’ ऐसे कितने ही फ़िल्मी गाने याद आ रहे हैं।

नहीं, आज हिंदी फ़िल्मी गीतमाला खेलने का मन नहीं है, बल्कि जब देवनागरी वर्णमाला के दसवें स्वर ‘ओ’ को याद किया तो यादों की ‘ओढ़नी’ लिए ऐसे कई गीत सामने आ गए, जिन्होंने बताया कि जब किसी को पुकारा जाता है जैसे ‘ओ बसंती पवन पागल’ या ‘अरी ओ सुनती हो’ तो दूर से किसी को पुकारने के लिए इसी ‘ओ’ का उपयोग किया जाता है।

ओकारांत वाला ‘ओ’

कई बार लिखने वालों ने ‘ऊँ’ को ‘ओम्’ भी लिखा है या ‘ओ’म्’ या ‘ओsम्’...लेकिन हिंदी में ‘ओकारांत’ में इसे लिखने का सही तरीका ‘ओ३म्’ है, जहाँ अंतिम स्वर को खींचकर लंबा कर दिया गया और उसके उच्चारण में दो से अधिक मात्राओं का समय लगा। यह प्लुत स्वर को दिखाने का तरीका है जब तीन मात्राओं को ३ अंक से दिखाया जाता है।

इसका ओज

हम भी कहाँ इस गणित में उलझ गए। हमें तो ‘अ’ वर्ण के आगे ‘उ’ को जोड़कर बने ‘ओ’ वर्ण को ‘ओट’ से निकालना था। ‘ओ’ के उच्चारण में तो एक मात्रा का ही समय लगता है। अब इस ‘ओ’ को संयुक्त, मिश्र या संधि स्वर भी कहते हैं तो हमें क्या! हम तो जानते हैं इसका अपना ‘ओज’ है, अपना ‘ओहदा’ है। जैसे ही इसे ‘ओछा’ समझा जाएगा यह ‘ओझल’ हो जाएगा।

यदि यह ग़लती कर दी तो ‘ओखल’ या ‘ओखली’ में सिर देने जैसे बात हो जाएगी। किसी ‘ओझा’ को बुलाने पर भी फिर आपको मूसल से कोई नहीं बचा पाएगा। यह तो ‘ओणम’ पर्व की याद दिलाता है, यह तो सीधे ‘ओलम्पिक’ की ओर ले जाता है। और तो और ‘ओज़ोन’ परत भी तो इसी ‘ओ’ के दम पर है जैसे ‘ओ’ रक्त गट भी इसे समर्पित है। आपने कभी कैब बुलाने के लिए भी इसी वर्ण में ‘ला’ को जोड़ा होगा, तो वो आई होगी।

ओट में छिपा ‘ओ’

आज के बच्चे नहीं जानेंगे लेकिन एक पीढ़ी पहले तक को पता है कि हलक सूखता था तो हथेलियों से इसी ‘ओ’ की ‘ओक’ बना पानी पीने का भी अपना मज़ा था। तो ‘ओट’ में छिपे ‘ओ’ को बाहर लाकर देखिए, देखिए कि ‘ओट’ और ‘ओटना’ में क्या अंतर है? जिन्होंने ‘ओक’ में पानी पिया, उसी पीढ़ी को पता है दूध ‘ओटकर’ पीने का क्या स्वाद होता है! पूछिए अपने बड़ों से, वे बताएँगे कि कभी होंठ को ‘ओठ’ भी कैसे लिखा जाता था! पर आपको तो ‘ओट’ से ‘ओटमील’ याद आ गया होगा, है न!

माँ से पूछिए वह बताएगी कि किचन के प्लेटफॉर्म को कभी ‘ओटा’ कहा जाता था और घरों के बाहर ‘ओटले’ होते थे, जहाँ जाजम बिछा बातों के लंबे किस्से चलते थे। घर-परिवार से वे किस्से सीधे ‘ओडिशा’ तक पहुँच जाते थे और बैठे लोगों में से कोई ‘ओडिसी’ नृत्य का जानकार निकल आता था। कभी कोई दुष्यंत कुमार की तरह कह पड़ता- ‘मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ’। फिर तो हर कोई भावनाओं में ‘ओत-प्रोत’ हो जाता और एक ‘ओघ’ में बातें न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच जातीं। इतनी बातें सुनकर कहीं आप भी इस कंठोष्ठ्य वर्ण ‘ओ’ से ‘ओ भगवान्’ न कह पड़े तो चलिए यहीं रुकते हैं।