यह कैसा ‘न्यू नॉर्मल!’

यह कैसा ‘न्यू नॉर्मल!’

‘मैं नहीं जानता आप क्या समझ रहे हैं, मैं कौन हूँ और क्या आशा कर रहे हैं मैं क्या कहने जा रहा हूँ...इसके अलावा (आप) मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहाँ रहता हूँ, क्या काम करता हूँ, किस-किससे मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आपसे मतलब नहीं रखता, और टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होते हैं, जो मैं आपके लिए होता हूँ’।

और भी मौजूँ

मोहन राकेश के चर्चित नाटक ‘आधे-अधूरे’ के ये शुरुआती संवाद हैं। यह नाटक सन् 1969 में आया था, इस बात को लगभग आधा शतक बीत गया लेकिन आज ये और भी मौजूँ लग रहे हैं। हम एक-दूसरे के बारे में कितना कम जानते हैं और जैसे उससे अधिक जानना भी नहीं चाहते

छोटे गाँवों-कस्बों, शहरों में रहने वाले कम से कम एक-दूसरे के घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों को जानते हैं, वे जानते हैं कौन-कहाँ, किन हालातों में रहता है लेकिन बड़े शहरों के बड़े स्कूलों, बड़े कॉलेजों या बड़े ऑफ़िसों में काम करने वाले इन बातों से बहुत कम वाकिफ़ होते हैं। वे उन स्थानों पर लगभग रोज़ मिलते हैं, जहाँ वे परिचित हुए होते हैं और परिचय का दायरा कुछ छोटी-मोटी बातों से आगे नहीं बढ़ पाता।

कोई ख़ास अवसर होता है तो पार्टी भी होटलों में हो जाया करती है और शोक सभा भी किराए के किसी हॉल में रख ली जाती है, ऐसे में घरों तक कोई पहुँच ही नहीं पाता तो ठेठ रसोई तक जाकर सुख-दु:ख की बातें, हास-परिहास कहाँ से संभव हो?

हाथ छूटा, साथ छूटा

ख़बरें आ रही हैं कि अमुक गुज़र गया, तमुक चल बसा। अलाँ के साथ ये हुआ, फलाँ के साथ ये हुआ। उस अमुक-तमुक, अलाँ-फलाँ का केवल मोबाइल नंबर आपके पास होता है, बाकी परिवारवालों में से आप किसी को नहीं जानते। यदि उसी व्यक्ति के साथ कोई दुर्घटना हो जाए और उसका मोबाइल बंद हो जाए तो आपके पास उस तक पहुँचने का कोई ज़रिया नहीं है।

आपको याद आता है कि उससे मिले तो वैसे भी बरस गुज़र गया था और आपको लगता है कि क्या पिछली मुलाकात में ही उसे अलविदा कह देना चाहिए था? मतलब जिनका हाथ बहुत पहले छूट गया था, उनका तभी साथ भी छूट गया यह मान लेना चाहिए। हालाँकि गुलज़ार लिखते हैं कि ‘हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते, वक़्त की शाख़ से लमहे नहीं तोड़ा करते’।

दंभ का पहरेदार

और ऐसे ही कुछ छूटे हाथ पुराने रिश्तों की तरह करीब आए भी लगते हैं। माना जा रहा है कि लगभग सालभर के लॉकडाउन से आभासी दुनिया में लोग एक-दूसरे के करीब आए हैं। कई पुराने परिचित फिर मिल रहे हैं। कई पुराने दोस्त आपस में टकरा रहे हैं, हँस रहे हैं, खिलखिला रहे हैं। भले ही वे बचपन के दोस्त हों लेकिन नए संदर्भों में अब वे केवल दिल तक दस्तक भर दे लौट रहे हैं

दिलों पर बैठे दंभ के पहरेदार दोस्तों को भीतर प्रवेश ही नहीं दिला रहे, ऊपरी-ऊपरी बातें हो रही हैं, इस समूह से उस समूह पर संदेश अग्रेषित हो रहे हैं, दुआ-सलाम हो रही है लेकिन उससे अधिक और कुछ निकलकर नहीं आ रहा।

कोई मतलब नहीं

मतलब हमें अपने अलावा किसी और से कोई मतलब नहीं रह गया है। इतनी आत्मकेंद्रितता पहले कभी नहीं देखी गई थी, जितनी अब देखने को मिल रही है। लोग एक-दूसरे से मिल नहीं पा रहे, सोशल मीडिया पर बतिया रहे हैं लेकिन यदि वहाँ भी कई दिनों से कोई नहीं दिखा तो कोई पूछ-परख नहीं ले रहा कि ‘भई कहाँ खो गए’? यदि भूले-भटके कोई पूछ भी ले तो जवाब नहीं आ रहा और यदि जवाब आ भी रहा है तो टका-सा कि ‘बिज़ी था/थी’। इस ‘बिज़ी’ होने में क्या था यह बताने की किसी को इच्छा नहीं है, किसी की सुनने की इच्छा नहीं है।

व्यस्त होना अच्छा है लेकिन यदि इतने व्यस्त हैं कि व्यक्ति, व्यक्ति से संपर्क ही तोड़ लेना चाहे, रिश्तों से धड़कन ही खो जाए तो न उस रिश्ते में कुछ रहता है और न उस ज़िंदगी में और इस ‘न्यू नॉर्मल लाइफ़’ में ये जो कुछ हो रहा है उसे लेकर सब ‘नॉर्मल’ है, क्या यह सबसे अधिक विचित्र बात नहीं है?