आ अब लौट चलें

आ अब लौट चलें

इन दो सालों में ‘मदर अर्थ’, ‘मदर नेचर’ जैसे शब्दों में उछाल आया है। ऐसा क्या हुआ कि माँ की इतनी अहमियत पहली बार पता चली, तो वह कारण बताने की किसी को ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत यह जानने की है कि धरती माता हो या प्रकृति माता या कोई भी माँ उसे किसी औपचारिकता की आवश्यकता नहीं है।

वह नहीं चाहती कि आप उसे किसी एक दिन ग्रीटिंग बनाकर दें या उपहार दें या उसके प्रति केवल एक दिन प्यार, अपनापन जतलाएँ। माँ चाहती है कि हर दिन उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का हो। यह उन संस्कारों की ओर लौटने की बात है जहाँ सुबह उठते ही कहा जाता है- ‘पादस्पर्श क्षमस्वमे’

माँ का सामर्थ्य

धरती पर दिन भर कदम रखकर चलते हैं याने उसे पैरों का स्पर्श कराते रहते हैं। किसी बड़े को पैर नहीं लगाना, यह उसके पीछे की सोच है और हम पैर रखने के पहले धरती से क्षमा माँगते हैं। यह आभार प्रदर्शन, यह कृतज्ञता हर क्षण होनी चाहिए, हर माँ के लिए।

किसी दिन सोचकर देखिए यदि धरती ने अपना गुरुत्वाकर्षण बल हटा दिया तो हम किसी बूते पर खड़े रह पाएँगे, हमारा दर्प, अभिमान एक क्षण में चकनाचूर कर देने का सामर्थ्य माँ के पास होता है। माँ ममतामयी होती है इसलिए उसकी नाराज़गी भी ऊपरी होती है। जब वह ताड़न करती है तो भीतर से वह भी रोती है लेकिन माँ के इस दिल को माँ बने बिना समझा नहीं जा सकता।

जन्म देना भर नहीं

माँ बनना मतलब जैविक दृष्टि से किसी बच्चे को जन्म देना भर नहीं होता। पन्ना दाई थी, जन्म नहीं दिया था उस बच्चे को जिसे बचा लिया था। माँ बनना मतलब स्नेह, प्रेम, ममता और तमाम सारी कोमल भावनाएँ और यह किसी पुरुष में भी हो सकती हैं। वहीं माँ बनना मतलब सारा पौरुष भी भीतर समेटना और बच्चे के हित के लिए, उसे अनुशासित बनाने के लिए पूरी कड़ाई भी बरतना

आसान नहीं रहा होगा सीता का अकेले वन में दो बच्चों लव-कुश को न केवल बड़ा करना बल्कि इतना सामर्थ्यवान् बनाना कि राम के अश्वमेध के घोड़े को रोक सके, जिसे बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी रोकने का साहस नहीं कर पाए हों। वो क्या ताकत होगी जो अकेले रहकर भी जीजाऊ किसी शिवा को शिवाजी महाराज में बदल देती है। कौन है जो नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बना देती है या बारह-तेरह साल की नववधू शारदा को जंगल में डाकू घेर लेते हैं और शारदा की ममतामयी दृष्टि से डाकू पैरों में गिर- माँ पुकारते हैं।

दर्द ले माई, दर्द ले!

जैविक दृष्टि से माँ होना मतलब अपने बच्चे को किसी भी दूसरे व्यक्ति से नौ महीने अधिक जानना। माँ होना मतलब शेष सभी रिश्तों की पहचान करवाना, जीवन की पहली पाठशाला देना वगैरह-वगैरह। लेकिन माँ होना मतलब भावी पीढ़ी को गढ़ने के लिए मरणांतक पीड़ा तक सहन कर जाना। पुराने ज़माने में प्रसूता से यही कहा जाता था- ‘दर्द ले माई, दर्द ले!’ जब वह दर्द सहन करती है, तभी नवांकुर आकार ग्रहण करता है।

इन दिनों पृथ्वी उसी मरणातंक पीड़ा से गुज़र रही है। वह ताप दे रही है तो उससे अधिक ताप खुद सहन कर रही होगी, तभी अगली पीढ़ी अधिक सुदृढ़, समझदार, संवेदनशील और सद्भाव से भरी हो पाएगी। जो दंश प्रकृति दे रही है उससे वह अधिक पल्लवित हो रही है।

ढकोसले नहीं

मदर्स डे पर किए जाने वाले सारे ढकोसले न कोई माँ चाहती है न प्रकृति ही। माँ चाहती है कि बच्चे की परवरिश में उसने अपने जितने सारे साल, सारा स्वेद, सारा घाम बहाया है बच्चे उसकी कद्र करें‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ के महत्व को पहचानें।

माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है, इसे देखने के लिए स्वर्ग जाने की ज़रूरत न पड़े, क्यों न धरती को ही स्वर्ग बना दें, अब तो चेत जाएँ। अब तो समझ लें कि माँ कुपित हो गई है और उसे मनाना हम सबकी जिम्मेदारी है क्योंकि सुना ही होगा- ‘पुत्र कुपुत्र हो सकता है, माता, कुमाता नहीं होती’