‘म’ की मिठास

‘म’ की मिठास

लगभग हर बच्चा हिंदी भाषा की जिस पहली कविता को जानता है, वह है- ‘मछली जल की रानी है’। मत्स्य के बारे मछुआरे की मानिंद मजबूती से सब इसी से जान पाते हैं। ‘म’ की माया और मायानगरी मुंबई की चटक-मटक के साथ ‘म’ यहाँ से मानस में प्रवेश करता है और मरने तक, मृत्यु काल तक बना रहता है, उसके बाद मोक्ष मिलता है या नहीं और मातम करने वालों के लौट जाने के बाद भी ‘म’ साथ रहता है या नहीं इसे लेकर भिन्न मत हो सकते हैं।

मठाधीशों के मद में मात्र मच-मच करता ‘म’ वैसे कई बार मथनी से मथ कर जब निकलता है तो मार्च हो या मई हर माह मेघ-सा मदहोश करता बरसने लगता है, इस मामले में किसी कॉफ़ी मग में इसे समेट मसला सुलझता नहीं है।

‘म’ की मिल्कियत

कई बार मीडिया में शोर मचता है कि भले कामों का मुहूर्त नहीं निकलता, यह शब्द महाराष्ट्र की मराठी भाषा में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे हिंदी ‘का’ मज़ा और मराठी ‘की’ मज्जा लगभग एक अर्थ देते हैं। ऐसा लगता है जैसे भाषाएँ मटर के दानों की तरह मिल-जुलकर रहती है। संस्कृत और संस्कृति उन सबमें मौजूद होती है या संस्कृत भाषा में उनका मिलन होता है यह भी कह सकते हैं।

‘म’ की मिल्कियत का माहौल ऐसे ही बनता है जैसे वे मालिक-मालकिन हों और मिलिट्री ट्रेनिंग में दूसरों को तैयार करते हुए खुद मक्खन खा रहे हों। वैसे मौजूदा माहौल में सबको मक्खन बाँटने वाला माखनचोर-नंदकिशोर मिल पाना मुश्किल है। हर कोई अपने लिए मोटर-गाड़ी चाहता है और दूसरों की मदद के नाम पर मिट्टी पलीद कर देता है।

मकड़जाल

मनमोहन, कृष्ण मुरारी की तरह जीवन को मिशन मान जीने वाले मौलिक लोग अब कितने हैं? वैसे भी मास्क पहने महती लोगों में से कौन मनोज है और मंगेश या मनीष, मनीषा या मधुबाला या मीनाक्षी ही एक मिनट में समझ पाना मुश्किल होता है। हालाँकि आँख में अंजन लगाने वाली महिलाएँ और दाँतों पर मंजन लगाने वाले मर्द मासूम होते थे ऐसा भी नहीं कह सकते। लेकिन कम से कम वे अपनी ही मकई सेंकते, अपने ही मकान में मोटे होते लोग तो नहीं थे, जो आजकल मशरूम की तरह बढ़ रहे हैं, जिनसे मुक्ति उसी तरह संभव नहीं जैसे आप किसी भी मंज़िल-मुकाम पर रहे मकड़ियों के मकड़जाल को साफ़ करने में मसरूफ़ रहने की मजबूरी होती ही है, उनसे मुक्ति नहीं।

वरना इधर आप मनोरंजन में मशगूल हुए और उधर एक जाला तैयार क्योंकि मकड़ियाँ मगरमच्छ की तरह पड़ी नहीं रहतीं। मकान या मंदिर या मस्ज़िद की इमारत पर लगे जाले साफ़ करने से कठिन है मस्तिष्क के जाले साफ़ करना। मूँगफली खाकर भी जो महबूब/माशूक होने पर खुश रहा करते थे वे मंगेतर से मियाँ-बीवी बनते ही एक-दूसरे के दिमाग के जाले साफ़ करने में लग जाते हैं, जैसे मंगलसूत्र पहना या पहनवाया ही इसलिए जाता हो।

महाकार्य

मोबाइल पर आए मैसेजेज़ को साफ़ करना भी मिलियन मुद्रा जैसा महाकार्य होता है। वे मैसेज आपको मालामाल नहीं करते कि आप मक्खीचूस की तरह सँभाले रहें। वे तो महामारी की तरह फैलते हैं और अक्कड़-मक्कड़ कोई भी महाराज हो, उसका पीछा नहीं छोड़ते। मखमल के कालीन पर बैठे माइकल को भी साइकिल लेकर भागना पड़ जाता है क्योंकि कई बार संदेशों से कोई मुनाफ़ा तो होता नहीं, बैठे-बैठे माँसपेशियाँ ज़रूर अकड़ जाती हैं। क्या कोई ऐसी मच्छरदानी हो सकती है जो इन संदेशों से बचा ले और मनमाने नहीं केवल मनचाहे मैसेज ही हम तक आ पाएँ?

मतभेद और मनभेद

पर महागौरी, महालक्ष्मी जैसी देवियाँ भी इनके आगे माथा टेक देती हैं। ‘मेरी बीवी के मायके’ जाने पर संदेश हो या प्रधानमंत्री मोदीजी पर, माखौल उड़ाने वाले संदेशों का अंबार लगा रहता है जैसे कोई मकर संक्राति पर मैच-मैच खेला जा रहा हो और मज़ाल है कि आप उफ़ तक कर पाएँ, उसकी मंजूरी नहीं होती।

मज़ाक-मज़ाक में कही कुछ बातें मिज़ाज ख़राब कर देती हैं। इन संदेशों को मुँह लगा मगज़ खराब करने से तो अच्छा है कुछ मुहावरे ही देखे जाएँ। मटरगश्ती करने वालों को मुहावरों की मटकी मटियामेट करने वाली सी लग सकती है। मतभिन्नता हो तो समझ आता है लेकिन मतभेद और मनभेद में अंतर होता है

मत प्रचार करने वाले अपना मतलब साधना जानते हैं। जब आपकी मति मारी जाए तब भी उनका मतिभ्रम-मतिभ्रंश नहीं होता। न आप उनसे मतैक्य कर पाते हैं, न उनका मत्सर कर पाते हैं। वे मदमत्त होते हैं और मदारी की तरह आपको नचाते हैं। मदिरा से लेकर मधुशाला के ज़रिए वे मद्धिम वार करते हैं। वे इसे मधु पर्व कहते हैं लेकिन अति मधुर भाषियों से थोड़ा दूर ही रहना अच्छा वरना मधुमेह भी हो सकता है। इस पर मनन कीजिए फिर देखिए ‘म’ का मसीहा कैसे मरुस्थल में पचासों मुहावरों की मिठास ले आता है।