ऐसे उजाले से तौबा

ऐसे उजाले से तौबा

अज्ञान के अंधेरे से हमें ज्ञान के उजाले की ओर ले चलो, यह प्रार्थना जितनी मधुर है उतना ही दिव्य है ज्ञान के उजाले में जा पाना लेकिन यदि ज्ञान का भौतिकवादी उजाला प्रकाश प्रदूषण को बढ़ाता हो और उससे लाखों पक्षी मर जाते हों, मनुष्य की नींद का चक्र गड़बड़ाता हो तो ऐसे उजाले से तौबा ही कर लेना चाहिए, नहीं क्या!

रात में आसमान में जितने तारे नज़र नहीं आते, उतनी स्ट्रीट लाइट्स, नियॉन प्रकाश से झिलमिलाते होर्डिंग्स, दुकानों-रेस्टोरेंट की जगमग, घरों-इमारतों की रौनक आपकी सड़कों पर रोशनी बिखेरती है। चारों ओर इतना उजाला होता है कि आपको गली-कूचों में भी अंधेरे का डर नहीं सताता।

यदि तंग गलियों में रोशनी की कमी हो तो दुपहिया गाड़ियाँ तो वहाँ भी आती-जाती हैं, पीपी-पेंपें के साथ हेडलाइट्स की रोशनी आँखों पर फेंकती है। यह तो अच्छी बात होनी चाहिए कि अब किसी से रोशनी उधार नहीं लेनी पड़ती लेकिन यह रोशनी इतनी ज़्यादा है कि इससे न केवल प्रकाश प्रदूषण फैल रहा है बल्कि वन्य जीवन भी प्रभावित हो रहा है, मौसम परिवर्तन भी इससे प्रभावित हो रहा है।

आर्टिफ़िशियल लाइट (बनावटी प्रकाश) हमारी दिल की धड़कन पर भी बुरा असर डालता है। हमारे चारों ओर 24 घंटे प्रकाश के होने से हमारा मेलाटोनिन प्रभावित होता है। यह मनुष्य की उस भीतरी समझ या जैविक घड़ी को गड़बड़ा देता है जो बताती है कि कब सोना और कब उठना है। हमारी प्राकृतिक गतिविधियाँ भी इससे प्रभावित हो रही हैं। मानव निर्मित प्रकाश से मोटापा, मधुमेह, स्तन कैंसर तक होने का खतरा है। इसके कारण सिरदर्द, थकान, नींद की कमी, मोटापा, रंग पहचान पाने में दिक्कत, रतौंधी, स्थायी अंधापन तक हो सकता है।

वर्ष 2016 में जब वर्ल्ड एटलस ऑफ़ नाइट स्काई ब्राइटनेस द्वारा रात के समय दुनिया का अवलोकन किया गया तो उसमें पाया गया कि उत्तरी अमेरिका, यूरोप, मध्य पूर्व और एशिया के विशाल क्षेत्र रात में चमक रहे थे जबकि पृथ्वी के केवल सबसे दूरस्थ क्षेत्र (साइबेरिया, सहारा, अमेजॉन) ही अंधेरे में थे

दुनिया के सबसे अधिक प्रकाश प्रदूषित देश सिंगापुर, कतर और कुवैत हैं। यह चकाचौंध और उससे होने वाली विकिरण हमारे ध्यान को भटकाते हैं लेकिन हम फिर भी ऊपरी चमक के पीछे भागने से नहीं चूकते। न केवल हम रात को सोने से भाग रहे हैं बल्कि हमारी वजह से कई पशु-पक्षी, कीड़े-मकौड़े भी अपने दैनिक जीवन को ठीक से जी नहीं पा रहे हैं। सड़कों पर लगे बिजली के खंभे और उनसे आती रोशनी कई जीवों को या तो आकर्षित करती है या उन्हें डराती है, दूर भगाती है, उनका दैनिक कालक्रम भी इससे टूटता है

पौधे भी तो रात को सोते हैं। पृथ्वी का पूरा पारिस्थितिकीय तंत्र ही प्राकृतिक प्रकाश (सूर्य) के चक्रों पर निर्भर है। चूँकि ये पारिस्थिति तंत्र आम तौर पर अपने पर्यावरण में परिवर्तन के प्रति काफ़ी संवेदनशील होता है इसलिए मानव निर्मित प्रकाश उस पर बुरा प्रभाव डालता है।

ज़रा सोचिए कभी रोशनी पाने के लिए हमें बिजली की आवश्यकता होती है और बिजली उत्पादन के लिए औद्योगिक प्रक्रियाओं में भारी मात्रा में कोयले का उपयोग होता है, हम इस प्राकृतिक संसाधन का कहीं ग़लत प्रयोग तो नहीं कर रहे, बेवजह इसकी बर्बादी तो नहीं कर रहे?