लाली मेरे ‘ल’ की

लाली मेरे ‘ल’ की

‘लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल’...ये लाल परी-सा ‘ल’ है जो लट्टू की तरह गोल-गोल घूमता है, जो लॉलीपॉप से लेकर लंच के लिट्टी-चोखे के स्वाद तक लबों पर चढ़ता है, ये बंद लिफ़ाफ़े का ‘इश्क वाला लव’ है। इसकी लौ लगते ही यह जीवन में अपनी सारी लीलाएँ लाता, ले आता है। इसकी ‘ऐसी लागी लगन’ लग जाने पर इसकी ललक लुभा जाती है।

ल का लोहा

ये ‘लाल मुँह का लंगूर’ है और लोमड़ी की चालाकी वाला भी, अंग्रेज़ी में इसे लॉन्च करना हो तो वहाँ यह लैपटॉप है, लगेज है, लाउंज है और लॉज भी और लो इससे हिंदी की लाज भी, जिसकी वजह से आपको लगता है ‘लोग क्या कहेंगे’! लोक-परलोक के कपड़ों-लत्तों, छोटे-बड़े लोन के लाभ-हानि के गणित में उलझे लोगों को कभी-कभी लात-घूँसे देकर यह इहलोक-परलोक की ‘लाख पते की बात’ बताता है, इसे लिपाई-पुताई करना नहीं आता, यह तो सीधी लाइन पर लौटा लाता है। लेखन करने बैठे लखन की लिखावट वाली लेखनी की यह कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खींचता कि जिसे लाँघा न जा सके। यह तो लगातार बड़े और ऐसे लेख लिखवाता है कि सबके लिए उसका ‘लोहा मानना’ लाज़मी हो जाए।

लंबा विस्तार

अमीर खुसरो की पहेली- ‘पथिक प्यासा क्यों, गधा उदासा क्यों’, का जवाब भी इसके पास ही है कि ‘लोटा नहीं था’। लोकल समस्याओं से लेकर लोकसभा के लोमहर्षक विमर्शों तक और लोखंडवाला-लोनावाला से लाहौर-लेह तक इसका विस्तार बहुत लंबा है लेकिन लोभ की लत में पड़े लोगों के लिए लानत जैसे शब्दों का लावा भी इसके पास है। इसे लाचारी नहीं पसंद। जब यह लाभान्वित करता है तो लाजवाब कर देता है। लॉकडाउन के लंबे काल में लाशें बिछ रही थीं तो यह अच्छी लाइफ़स्टाइल जीने वालों से ज़रूरतमंद लोगों के लिए लंगर लगवाता है

लालायित

अपनी लुकाछुपी से यह लोट-पोट करवाता है तो कभी अच्छे लिबास और लॉकेट पहनी लाड़ली लैला से कहलवाता है, ‘लट उलझी सुलझा जा बलमा’ और गुनगुनाना देता है ‘लूट प्यार का मज़ा’...उस पर यह कोई लगान भी नहीं वसूलता। इसका लालन-पालन ऐसा है कि लाठी लेकर कुछ लादता नहीं है। पर लटके-झटके दिखाते हुए लोफ़र मत बनिए। इसे ऐसे लच्छन (लक्षण) पसंद नहीं। इसके लिए लीन होने भर की देर है,भले ही आप उसमें कितने भी लेट हो जाएँ, बस एक लुक देता है पर लड़ता नहीं, सोता-लेटता नहीं, लाड़ करते हुए कहता है – लो झोली लाओ और सब देने को लालायित रहा है। लेकिन आपका लार टपकाना इसे पसंद नहीं। वरना यह लंका भी जला सकता है और लाक्षागृह भी।

लीक से हटकर

इसे लापरवाही से नहीं, लीक से हटकर काम करने वाले पसंद आते हैं। लक्ष्मी की लालसा के लालच में लिप्त, लोलक की तरह लटके ललचाए लोचनों से इस तक नहीं पहुँच सकते इसके लिए तो चेहरे पर लज्जा का थोड़ा लोन और श्रम का लवण चाहिए फिर तो यह लंदन से भी लेटर लिवा लाएगा कि जो आपका लक्ष्य वह है तो बिना लाइन में खड़े हुए आपका हो जाए।

लल्ला लल्ला लोरी

आप लड़का है या लड़की, ललित है या ललिता, लक्ष्मण है या लखन या लोकेश यह न तो भेद करता है, न लड़ाई। इसकी भाषा लट्ठमार नहीं। इसने तो लगता है ‘लकड़ी की काठी’ के बचपने के लफ़्जों को ‘लल्ला लल्ला लोरी’ की तरह जीवनभर सीने से लगाए रखा है, और आपके मन को बच्चों में रमने लायक बना रहने देता है। इसकी लिपि लयबद्ध है, जिसे लहू समझ नहीं मोतियन लड़ी समझ अपने पास लाना होता है। व्याकरण के अभिधा, लक्षणा, व्यंजना को यह जानता है पर यह ‘लकीर का फकीर’ नहीं है। इसकी लकब ऐसी है कि सूत के लच्छे कातते लकुटी लिए गाँधी बाबा बनने का लिहाज़ भी इसमें है और लिहाज़ा ‘खूब लड़ी मर्दानी वाली’ झाँसी की रानी की तरह यह लड़ैत भी है।

लक्ष्य भाषा

पर यह केवल लड़ाकू नहीं है, इसके पास लतीफ़े भी हैं और लड्डू भी है। यह लीचड़ नहीं है और बिना लाभांश लिए कई लीटर दूध-दही की लबालब नदियाँ बहा सकता है। क्रेडिट पाने की लिप्सा इसे नहीं, वहाँ वह लज्जित महसूस करता है। लटपट करने वालों की श्रेणी से यह ऐसे लापता रहता है जैसे लकवा मार गया हो। फिर यह लालटेन लेकर ढूँढने पर भी नहीं मिलता। मिल जाए तो लखनवी अंदाज़ में ‘पहले आप, पहले आप’ करने लगेगा और आपके लहकने से पहले लहराकर चल पड़ेगा। लक्षितार्थ को समझिए, इसकी लक्ष्य भाषा को पहचानिए और यह लताड़े उससे पहले उस पर बिना लदे, लबों को सीकर निकल लीजिए।