बाँधकर मत रखिए, बहने दीजिए

बाँधकर मत रखिए, बहने दीजिए

कभी आपने गौर किया है, किसी भी पात्र, घटना, परिस्थिति में दुविधा की स्थिति कब निर्मित होती है? किसी भी रिश्ते, व्यक्ति, संबंध या स्थिति में तनाव कब पैदा होता है? एक इकाई के रूप में आपके आसपास की स्थितियाँ गड़बड़ाती हैं तो पूरे समाज पर भी उसका प्रतिबिंब दिखता है। सवाल कई हो सकते हैं और आपको जवाब नहीं मिल रहा हो तब भी कोशिश कीजिए जवाब जानने की, जवाब बहुत आसान है।

दरवाज़ा खुल सकता है

एक कहानी पता है आपको? एक राजा ने दुनियाभर के गणितज्ञों को बुलवाया और एक बंद दरवाज़ा दिखाया। राजा ने बताया कि दरवाजे पर सूत्र लिखा है, सूत्र हल करते ही दरवाज़ा खुल जाएगा। तमाम गणितज्ञों ने दिमाग लगा लिया लेकिन कोई उस सूत्र को हल नहीं कर पाया, उसी वक्त जाने कहाँ से एक बच्चा आ गया और बच्चे ने दरवाज़ा धकेल दिया और दरवाज़ा खुल गया।

बड़े-बड़े दिग्गज सूत्र हल करने में लगे थे, किसी ने यह जानने की कोशिश भी नहीं की कि दरवाज़ा बिना सूत्र के भी खुल सकता था। इसी तरह एक बच्चा हमारे भीतर भी होता है, जो जानता है कि बंद दरवाज़े कैसे खोले जा सकते हैं?

समर्पण कर दीजिए

अभी भी नहीं समझे! बहुत सरल बात है बच्चे की तरह सरल बनना होगा। किसी चीज़ को नियंत्रित करने की कोशिश मत कीजिए। जैसे बच्चे ने बड़ी सहजता से दरवाज़े को धक्का दे दिया। उतनी ही सहजता से जीवन जिया जा सकता है।

अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश मत कीजिए, न किसी व्यक्ति, स्थान, वस्तु या घटना को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश कीजिए। जो जैसा हो रहा है, वैसा होने दीजिए, अपने आपको बहने दीजिए, संतुलित रहिए लेकिन समर्पण कर दीजिए।

निश्चित मकसद

बच्चा किसी बात की जिद करता है तो हम उसे डाँटते हैं लेकिन हम खुद क्या कर रहे होते हैं? हम क्यों चाहते हैं कि सारी चीज़ें हमारे हिसाब से हों? चीज़ों को अपने हिसाब से होने दीजिए। वैश्विक चाह में आप दखलंदाज़ी करेंगे तो आपके हाथ शून्य ही लगेगा।

आप किसी बात को बहुत सामान्य तरीके से ले सकते हैं लेकिन ईश्वरीय ताकत या प्रकृति की उस ताकत को आप जिस भी नाम से पुकारते हैं, वो कोई भी काम इसलिए नहीं करती कि कर दिया बस, हर कार्य के होने का एक निश्चित मकसद होता है और वह नियत समय पर ही होता है।

डरिए नहीं

यहाँ यह कहने का कदापि तात्पर्य नहीं है कि आप कुछ मत कीजिए। कार्य तो करना है, आपको ही करना है लेकिन उसे पकड़कर रखने की जिद छोड़ दीजिए। उसे अपने हिसाब से ढालने की जिद मत कीजिए। अंग्रेज़ी में कहते हैं ‘लैट इट गो’... जाने दीजिए। जो जैसा हो रहा है, उसे वैसा होने दीजिए।

डरिए नहीं। कई बार हमारे भीतर छिपा डर ऊपरी तौर पर हमसे ऐसा काम करवाता है जिससे लोगों को लगे कि सब हमारे नियंत्रण में है। स्वीकार कीजिए कि आपके नियंत्रण में कुछ नहीं। न केवल स्वीकार कीजिए बल्कि अपना नियंत्रण छोड़िए भी।

गाँठों को खोलिए

न, न इसका यह मतलब भी नहीं कि आप बच्चों पर अपना नियंत्रण मत रखिए या शासन-प्रशासन व्यवस्था पर नियंत्रण न रखें। इसका संबंध प्रशासनिक या दैनंदिन कार्यों से नहीं है, इस नियंत्रण का संबंध आपके मन, मस्तिष्क, विचार और भावनाओं से है। आपका रोने का मन करे, रो लीजिए। हँसना चाहे, हँस दीजिए। किसी पर गुस्सा आ रहा है, क्रोध व्यक्त कीजिए। किसी पर लाड़ आ रहा है, दिल खोलकर दुलार दीजिए

क्यों रोककर रखते हैं खुद को? जब आप रोककर रखते हैं तो आपके भीतर कई परतें जमा होती चली जाती हैं, जो भीतरी गाँठों में बदल जाती हैं। न अपने मन पर, न रिश्तों में, कोई गाँठ न लगने दीजिए। गाँठों को खोलिए, अपने आपको खोलिए, मुक्त हो जाइए।