इंसान का इंसान होना

इंसान का इंसान होना

बहुत लोग मिल जाएँगे जो कहते हैं-‘मनी मैटर्स!’ शायद वे सही भी होते हैं, उनके जीवन के अपने अनुभव होते हैं जिनमें उन्हें लगता है कि मनी मैटर करती है। लेकिन उसके साथ ‘मैटर’ शब्द है, ‘मैटर’ का एक अर्थ तत्व या भौतिक पदार्थ है। भौतिक स्तर पर ही वह प्रभावित करता है और उन्हीं लोगों को प्रभावित करता है, जो भौतिक दुनिया से जुड़े रहते हैं।

हो सकता है यह समझाने की कोशिश की जाए कि मनी मैटर्स कहावत में आने वाला शब्द मैटर्स का अर्थ भौतिक पदार्थ से नहीं, उसके तात्पर्य से है। अर्थात् पैसा बोलता है, या पैसे की जगह पर पैसा ही लगता है, जहाँ ज़रूरी हो, वहाँ पैसा ही ज़रूरी होता है...जी, जी, आप जो कह रहे हैं, सब समझ आ रहा है लेकिन हर जगह पर पैसा ही काम नहीं आता। पैसा बहुत कुछ हो सकता है, लेकिन सब कुछ नहीं

सुकून चाहिए

इसे इस तरह समझें तो कि मनी मैटर करती है और वह आपके जीवन में इतनी अहम हो जाती है कि आप जितना कमाते हैं, आपको कम लगता है। इक़बाल के कहे ‘सितारों से आगे जहाँ और भी हैं, अभी इश्क के इम्तिहाँ और भी हैं’ की जगह आपको लगने लगता है कि जितना भी कमाओ,कम पड़ रहा है। पैसों के इम्तिहान आप देते चले जाते हैं। तो ऐसा क्या करें जिससे आपकी क्षुधा शांत हो, क्षुधा मतलब भूख,प्यास, तड़प।

आपके मन को पैसा नहीं, सुकून चाहिए होता है और सुकून पैसों से कमाया नहीं जा सकता। सुकून कमाने की नहीं, पाने की चीज़ है। जिसके पास पैसा होता है वह अमूमन कहता है मुझे सुकून चाहिए। मतलब उसके पास सब कुछ है फिर भी कहीं न कहीं, कुछ न कुछ कम है। उसी कमी को वह भर नहीं पा रहा, खरीद नहीं पा रहा, कमा नहीं पा रहा।

पैसा कमाने के साधन

अब उन चीज़ों को देखिए जो पैसों से खरीदी भी नहीं जा सकती, आपका मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, आपकी कला, आपका प्यार, आपकी सहजता, मानवीय होने के आपके गुण। और इन बातों में आप जितना उतरते चले जाते हैं, उतना अधिक आप सुकून से भरते चले जाते हैं।

किसी साधक को रियाज़ करते हुए देखिए, घंटों वो अपनी कला में डूबा रहेगा और बावज़ूद वह तरोताज़ा दिखेगा, जबकि पैसा कमाने के साधन आपको थका देते हैं, मशीन बना देते हैं और जैसे मशीन को मैंटेनेंस लगता है वैसी देखरेख की शरीर माँग करने लगता है, लगता है शरीर का ईंधन कम हो रहा है।

कलाकार दीन-दुनिया से बेखबर अपनी कला में रहता है, उसे किसी देखरेख की ज़रूरत नहीं होती। वह कितनी कैलोरी खाना है और कितने लीटर पानी पीना है, इन गणितों में नहीं उलझता (यहाँ तात्पर्य स्वास्‌थ्य की ओर अनदेखा करने से नहीं है)। उसका शरीर माँग ही नहीं करता बाकी किसी चीज़ की।

कलाकार की मर्जी

बादशाह अकबर के नव रत्नों में मियाँ तानसेन थे। एक बार अकबर ने कहा तुम इतना अच्छा गाते हो, तुम्हारे उस्ताद कितना अच्छा गाते होंगे, हमें उनसे मिलवाओ। तानसेन ने कहा गुरू किसी के कहने पर नहीं गाते, वे अपनी मर्जी से गाते हैं। उन्हें सुनना हो तो वे जब गाएँ तब चुपचाप खड़े होकर सुनना होगा, उनकी मर्जी से सुनना होगा।

बादशाह की मर्जी से भी जब कलाकार की मर्जी बड़ी होती है तो गुरू हरिदास होते हैं, जिनका गायन सुनने के लिए अकबर को जंगल में जाना पड़ता है और उनकी प्रतीक्षा करनी होती है। जब गुरू गाते हैं तो बादशाह वृक्षों की ओट में छिपकर सुनता है। बादशाह सामने आ जाए तो गुरू गाना बंद कर दें। बादशाही और सारी दौलत-शोहरत एक तरफ़ और कला का पलड़ा दूसरी तरफ़ इतना भारी हो जाता है।

बना है शाह का मुसाहिब

दूसरा मशहूर किस्सा बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार के शाही कवि ज़ौक और मिर्ज़ा ग़ालिब के बीच का है। एक दिन ग़ालिब बाज़ार में बैठे थे तभी मियां ज़ौक का काफिला वहाँ से गुज़रा तो ग़ालिब ने तंज कसा कि ‘बना है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता’ मतलब बादशाह की जी हुज़ूरी से इतराने में भी क्या इतराना।

ज़ौक ने यह बात बादशाह को बता दी, बादशाह ने ग़ालिब को दरबार में पेश होने को कहा। ग़ालिब ने तुरंत कह दिया कि ज़ौक साहब ने जो सुना वह नई ग़ज़ल का मक़्ता है, जब पूरी ग़ज़ल पढ़ने को कहा तब ग़ालिब ने एक कागज़ निकाला और पूरी ग़ज़ल पढ़ दी, जिसका शे’र ऐसा कह दिया –‘हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता, वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या है’ वो कागज़ का टुकड़ा कोरा था और ग़ालिब ने उसी वक्त रच दिया था और शाह का अर्थ ख़ुदा, ऊपर वाले से लगा दिया था।

इंसान का इंसाँ होना

सीधी-सी बात है ऊपर वाले की नेमत हो तो इतराना जायज़ भी है, वरना किसी की क्या आबरू है, पैसों को ऐसे ही हाथ का मैल नहीं कहते। पैसा आज है, कल नहीं होगा, हो सकता है परसों फिर से आ जाए लेकिन इंसान होना लगातार साथ रहने वाली बात है।

आपके पास कितना पैसा है यह बिल्कुल भी मायने नहीं रखता, मायने रखती है यह बात कि आपमें कितने आप हैं, आपके भीतर आप खुद कितने हैं। इशरत किरतपुरी कहते हैं- ‘अव्वली शर्त है इंसान का इंसाँ होना’ या कि ग़ालिब के ही शब्दों में ‘बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना’।