महिलाओं पर सॉफ़्ट-सा दिखता कठोर पिंक वार

महिलाओं पर सॉफ़्ट-सा दिखता कठोर पिंक वार

‘पिंक फ़ॉर गर्ल्स, ब्लू फ़ॉर बॉयज़’ पहले बाज़ार ने इस आवश्यकता को ईज़ाद किया और उसके बाद उसे इतना महत्वपूर्ण बना दिया कि लड़कियों से जुड़े सारे उत्पाद ख़ास पिंक या परपल रंग में आने लगे। कहा गया कि लड़कों या पुरुषों के नेवी ब्लू या ब्लैक रंग के उत्पाद और उनकी पैकेजिंग पर कम खर्च करना पड़ता है।

उसके बाद ऐसा माहौल बनाया गया क्योंकि पिंक या लाइट परपल रंग देने के लिए अतिरिक्त खर्च करना पड़ता है इसलिए अतिरिक्त कर भी लगेगा और लिंग आधारित इस शुल्क को ‘पिंक टैक्स’ नाम दिया गया। कभी-कभी खास सुगंध या ग्लिटर के नाम पर भी यह टैक्स लिया जाता है। यह विशेषकर उन उत्पादों पर लगाया जाता है जो परंपरागत रूप से केवल महिलाओं के लिए बनते हैं और पुरुष उनका इस्तेमाल नहीं करते। देखा जाए तो यह वास्तव में कोई शुल्क नहीं, बल्कि बाज़ार की तिकड़म है, जो बीते लगभग 20 सालों से जारी है और अभी-अभी इसका विरोध होने लगा है।

अतिरिक्त टैक्स

बच्चियों के खिलौने हों या उनके कपड़े वहाँ से यह भेदभाव शुरू हो जाता है फिर महिलाओं के पर्सनल केयर प्रोडक्ट जैसे डियोडरंट, परफ्यूम, बॉडी वॉश या शैम्पू हों या दूध में मिलाए जाने वाले फ्लेवर भी यदि महिलाओं के लिए बने हों तो उन पर अतिरिक्त टैक्स लगता है। हेयर सैलून में भी महिलाओं के बाल काटने का शुल्क पुरुषों की तुलना में अधिक होता है, कहा जाता है कि महिलाओं के बाल अतिरिक्त लंबे भी होते हैं और उसमें अतिरिक्त श्रम लगता है।

यदि ड्राई क्लीनर के यहाँ चले जाएँ तो वहाँ भी अतिरिक्त भुगतान करना पड़ता है क्योंकि महिलाओं के कपड़े विविधता लिए होते हैं और पुरुषों के लगभग एक समान या यों कहें कि युनिफ़ॉर्मनुमा ही। जूते-चप्पल देख लें या स्वेटर-हाथ मोजे या कपड़े ही। फिर पुरुषों का टेलर और महिलाओं के बुटिक में भी यह अंतर दिखता है।

ब्रेन वॉश

बाज़ार उस नब्ज़ को पहचानता है कि पुरुष किसी भी उत्पाद की कीमत पर अधिक ज़ोर देते हैं जबकि महिलाओं की नज़र उसकी कीमत पर कम ही जाती है। बाज़ार जानता है कि महिलाओं का ब्रेन वॉश करना या उन्हें अपने झाँसे में लेना आसान है क्योंकि महिलाएँ जो खरीदना चाहती हैं वे उसे खरीदती ही हैं भले ही उसकी उन्हें कितनी भी कीमत चुकानी पड़ जाए।

आप आम रेज़र को ही ले लीजिए, स्त्रियों-पुरुषों के लिए बनाए रेज़र की बनावट में कुछ अधिक अंतर नहीं होता लेकिन कीमत में वह अंतर अच्छा-खासा होता है। जो महिलाएँ कीमत पर ध्यान देती हैं, वे कई बार पुरुष सेक्शन से कपड़े खरीदती हैं और उस ट्रैंड को एक्स्ट्रा लार्ज आउटफ़िट कहती हैं और अन्य उत्पाद जैसे रेज़र ही।

टैम्पोन टैक्स

सबसे पहले 2010 की एक उपभोक्ता रिपोर्ट में इसे रेखांकित किया गया कि एक समान उत्पाद पर महिलाएँ, पुरुषों की तुलना में 50 प्रतिशत अधिक राशि खर्च करती हैं। एनवाईसी डिपार्टमेंट ऑफ़ कंस्ज़ूमर अफ़ेयर्स ने 2015 के अध्ययन में पाया कि महिला उपभोक्ताओं को महिला उत्पादों पर बेवजह उससे अधिक शुल्क देना पड़ता है जितना उन्हीं उत्पादों का पुरुष श्रेणी में शुल्क होता है। इस अध्ययन में कहा गया कि यह अतिरिक्त शुल्क कम से कम 7 प्रतिशत तो होता ही है।

बाज़ार इस अतिरिक्त शुल्क को सैनेटरी नैपकिन्स और टैम्पोन में भी जोड़ देता है। महीने के उन खास दिनों में महिलाएँ अपने स्वास्थ्य के लिए अधिक सजग होती हैं इसलिए बाज़ार इन उत्पादों की जो कीमत तय करें, देने को तैयार होती हैं। इसे टैम्पोन टैक्स का नाम इसीलिए दिया गया है। पहले इस पर वही शुल्क लगता था जो टॉयलेट पेपर या टूथपेस्ट पर लगता है लेकिन बाज़ार जान गया कि महिलाओं की यह आवश्यकता है और इसे भुनाया जा सकता है। महिलाओं ने इसका विरोध भी किया।

वे देश जहाँ यह पिंक टैक्स लगता है, उनमें फ्रांस, जर्मनी, यूके, ऑस्ट्रेलिया और इटली हैं। यूके में महिलाओं और लड़कियों को कपड़ों, खिलौनों, कॉस्मेटिक्स पर औसत से 37 प्रतिशत अधिक शुल्क देना पड़ता है। ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और युनाइटेड किंगडम में इसके लिए मुहिम छिड़ी पर कानून बनने में जनवरी 2019 तक का समय लग गया।

भारत ने हाल में टैम्पोन टैक्स को हटा दिया है। केन्या ने न केवल यह टैक्स हटाया बल्कि स्कूल जाने वाली लड़कियों को निःशुल्क प्रदान करना भी शुरू किया है। कोलंबिया ने नवंबर 2018 में इस टैक्स को हटाया। जर्मनी में महिला उत्पादों पर लक्ज़री टैक्स लगता था, जिसे 2020 की शुरुआत में 19 प्रतिशत से कम कर 7 प्रतिशत किया गया है।

परचेज़िंग पावर

यह कितना हास्यास्पद है क्योंकि देखा जाए तो महिलाएँ उस लक्ज़री को अपने ऊपर खर्च करने के लिए न मानसिक न आर्थिक रूप से तैयार होती हैं। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि पूरी दुनिया में समान काम का पुरुषों को वेतन अधिक मिलता है, महिलाओं को कम। इससे खुदबखुद उनकी खरीदने की क्षमता जिसे अर्थशास्त्र में परचेज़िंग पावर कहा जाता है, कम होती है। वेतन का यह अंतर महिलाओं के पक्ष में नहीं होता और बाज़ार उसे भी अपने पक्ष में कर लेता है

बाज़ार का मानना है कि चूँकि महिलाएँ अपने लिए चीज़ें कम खरीदती हैं इसलिए माँग की कमी उन उत्पादों की कीमत को बढ़ा देती है। पुरुष अपने ऊपर अधिक खर्च कर पाते हैं क्योंकि वे अधिक कमाते हैं इसलिए माँग अधिक होती है और कीमत कम। यह पिंक टैक्स जैसी इस असमानता की ओर भी इशारा कर देता है। महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़े उत्पादों से पुरुषों का सीधा संबंध नहीं होता तो उसे खरीदने भी नहीं जाते और कीमतें महिलाओं पर सॉफ़्ट-सा दिखता कठोर पिंक वार कर देती है।