डंके की चोट पर कहिए

डंके की चोट पर कहिए

जीवन में कुछ घटनाएँ इसलिए हो ही नहीं पातीं क्योंकि वे कही ही नहीं गई होतीं। नौकरी के लिए दिए जाने वाले साक्षात्कार में किसी प्रश्न का उत्तर देने से चूक गए कि नौकरी से चूक जाते हैं। हो सकता है आपको कंप्यूटर में महारत हासिल हो, वैज्ञानिक होने के नाते आप जीनियस हो, गणितीय सवाल आप चुटकी में सुलझा लेते हों, आप चाहें जितने भी सफ़ल हों लेकिन केवल किसी क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित कर लेने भर से कुछ नहीं होता यदि आपकी वाणी में मधुरता न हो।

आपने भी सुना होगा मीठा बोलने वाले दुकानदार का माल अधिक बिकता है। ‘काक-पिक दोऊ एक-से’ की कहावत भी याद होगी कि कौआ और कोयल जब तक बोलते नहीं तब तक एक समान ही दिखते हैं जैसे ही कौआ कर्कश चिल्लाता है आप अपने कान बंद कर लेते हैं और कोयल की कूक से कूक मिलाने लगते हैं।

हम भी कह उठें

कई बार आपने सुना होगा कि ‘मीठा बोलने के पैसे नहीं लगते’, लेकिन तब भी हम मीठा नहीं बोल पाते। कई बार तो हम बोल ही नहीं पाते। उन बिंदुओं पर ध्यान देना होगा कि वे कौन-सी वजहें जो हमें बोलने से रोकती हैं? जबकि होना यह चाहिए कि फैज़ अहमद फ़ैज की तरह हम भी कह उठें कि ‘बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे’। या आपको बहादुर शाह ज़फ़र की तरह लगता है- ‘बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी, जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी।’

कारणों को लिखिए

अपने आपको अभिव्यक्त कीजिए। नहीं कर पा रहे तो क्यों नहीं कर पा रहे, उसकी जड़ तक जाइए। कई बार बेवजह संबंध न ख़राब हो जाएँ इसलिए हम चुप हो जाते हैं, कई बार मातहत-कर्मचारी का रिश्ता बोलने से रोकता है, व्यवस्था के ख़िलाफ़ न बोल पाना उसके पीछे छिपे कारण की वजह से होता है। उन सभी कारणों को लिखिए कि आप बोल क्यों नहीं पाते? या जब जो बोलना होता है, उस वक्त वह क्यों नहीं बोल पाते?

नेशनल असोसिएशन ऑफ़ कॉलेज एंड इम्पलॉइज़ (एनएसीई) ने जब नियोक्ताओं से पूछा कि वे नौकरी की चाह वाले किसी उम्मीदवार में सबसे पहले क्या देखते हैं तो उन्होंने 82 % के साथ पहला जवाब दिया- ‘लिखित अभिव्यक्ति का कौशल’। मतलब केवल बोलना ही नहीं, आपको उसे लिखना भी आना चाहिए, भले ही आप लेखक हो या न हो।

लिखने की आदत

हमारी लिखने की आदत छूटती जा रही है, इसलिए हम अपने आपको अभिव्यक्त करने में असमर्थ पाते हैं। पहले बच्चों से कहा जाता था कि रोज़ एक पन्ना लिखें, भले ही अख़बार-पत्र-पत्रिकाओं में से देखकर उसे जस का तस उतार लें।

इससे फ़ौरी तौर पर तीन फ़ायदे होते थे एक तो लिखने की आदत लग जाती थी, दूसरी शब्द संपदा बढ़ती थी और तीसरा भाषा कौशल विकसित होता था। इसके अलावा ज्ञान बढ़ना, आकलन क्षमता में वृद्धि होना और हर विषय के सभी पहलुओं को समझ पाना जैसे कई अन्य लाभ भी होते थे।

लेकिन आजकल उस तरह से कुछ पढ़ा ही नहीं जा रहा तो लिखा कैसे जाएगा, लिखा नहीं जा रहा तो बोला कैसे जाएगा?

आउटलेट

कई बार जो बातें हम किसी से कह नहीं पाते उन्हें लिखकर बयाँ कर देते हैं, भले ही वह किसी को बताए या न बताए लेकिन उसे आउटलेट मिल जाता है। हम उस आउटलेट को बंद करने पर आमदा हैं। अख़बारों से वैसे संपादकीय गायब हैं जो आग लगा देते थे, जो क्रांति का बिगुल बजा देते थे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का अखबार केसरी उसमें लिखे जाते संपादकीय आज और अन्य वैचारिक सामग्री की वजह से जाना जाता था, आज अख़बारों में ख़बरें हैं, ख़बरों में रोचकता है और पठनीयता! लगभग न के बराबर

जब तक हम पढ़ेंगे नहीं, तब तक विचार नहीं कर पाएँगे। विचार नहीं कर पाएँगे तो वैचारिकता कैसे विकसित करेंगे? वैचारिकता ही विकसित नहीं हुई तो हम क्या तो समझेंगे, क्या तो बोलेंगे, क्या तो कहेंगे। बोलने और कहने में भी अंतर है। यों तो अनर्गल कुछ भी बोला जा सकता है लेकिन जब हम कुछ कहते हैं तो हम ‘डंके की चोट पर’ कहते हैं, हमें पता होता है कि हम क्या कह रहे हैं और उसका क्या असर होगा।

बातें पिया की

इसलिए कहिए, गुनिए, अपनी कहिए, दूसरों की कहिए ऐसे जैसे प्रिया कहती है अपने पिया की बात... यू-ट्यूब पर ‘बातें’ नाम से गीत प्रस्तुत