खोजे ‘ख’ का खजाना

खोजे ‘ख’ का खजाना

कछुए और खरगोश वाली कहानी तो आपको पता ही होगी? वो कहानी यहाँ नहीं दोहरा रहे, केवल इस ओर इंगित कर रहे हैं कि देखिए ‘क’ से कछुआ है तो उसके साथ जो आता है वह ‘ख’ से खरगोश है, ठीक वैसे ही जैसे ‘क’ के बाद वर्णमाला में अगला अक्षर आता है ‘ख’।

जिन खोजा, तिन पाइयाँ

बिल्कुल वहीं ‘ख’ जिसे खड़िया से लिख टंग ट्विस्टर बना लेते थे कि ‘खड़कसिंह के खड़कने से खड़कती हैं खिड़कियाँ, खिड़कियों के खड़कने से खड़कता है खड़कसिंह’। हो सकता है खड़ाउ पहना खड़कधारी खड़कसिंह आपको खबरदार कर दे। उसे खड़ूस मत समझिए। वह ख़ौफ़नाक नहीं है। वह ख़तरनाक नहीं है, न ही ऐसा सोचने में कोई ख़तरा है, तब भी आपको लगता है तो वहाँ खड़े मत रहिए।

चलिए इतिहास के खंडहरों को नहीं खोदते, अपना गला खंखार लीजिए, टूटी खपरैल को ख़ामखांह मत ढोइए, क्योंकि हम ‘ख’ का खोया खजाना खोजने जा रहे है, जो खोखला नहीं, पुख्ता है। बताइए क्या आप उसका खँजाची या खजानची बनना चाहेंगे? ‘जिन खोजा, तिन पाइयाँ’, खंगालकर देखिए, आपके पास क्या कोई ख़त या इसका कोई खंड, खंडिका है...न, न खंडिता नहीं, वह तो भरत नाट्य शास्त्र के नायिका भेद में आती है, जिसके दिल पर खंजर चल जाता है। आप इसका खंडन-मंडन न कीजिए वरना तो खंडपीठ स्थापित करनी पड़ जाएगी।

खट्टी-मीठी तान

पचपन खंभे वाली संसद में न्याय होता है लेकिन इतनी-सी बात के लिए वहाँ तक क्यों जाया जाए, किसी ने आपको पांडवों की तरह खांडववन तो नहीं पकड़ा दिया जो आप वहाँ गुहार लगाएँगे। आप तो गा उठिए वैसे खटास भर देने वाले खलनायक मूवी जैसे अभद्र गाने नहीं खपाने, याकि खटिया में खटमल या खटपट हो, इन गीतों की खरीदारी भी ख़त्म कीजिए। फिर आपके ख़्यालात से कोई ख़फ़ा नहीं होगा।

आप तो खंडवा के किशोर कुमार को याद कीजिए और खगोल मंडल तक छिड़ जाए ऐसी खट्टी-मीठी तान छेड़ दीजिए। खनक छेड़ने की ख़बर देना कोई ख़ता नहीं है।

खलल से खलबली

क्या आपको पता है जो ख़बर देता है उसे ख़बरनवीस कहते हैं और उसके सूत्र को, जिससे खुफिया ख़बर मिलती है ख़बरची कहते हैं। पुलिस महकमे में भी ऐसे ख़बरची होते हैं जो कई बार ख़स्ताहाली में भी अपना ख़र्चा उठाने का ख़ामियाजा भी भुगतते हैं।

जिनके काम के खाँचे में खलल पड़ती है, वे खलबली मचा देते हैं और कई बार इन्हें फँसवा देते हैं, किसी को संदेह हो जाता है कि उस ‘खरबूजे को देख इस खरबूजे ने भी रंग बदला’ होगा, जैसे ख़राब खरपतवार निकालने में कई बार कोई कोंपल भी उखड़ जाती है।

फिर मन में खराश रह जाती है कि खरा भी उखड़ गया। ऐसे में खरी-खोटी सुननी पड़ जाती है और दिल पर पड़ी खरोंच को कोई नहीं देख पाता और खलिश रह जाती है। फिर खेद व्यक्त करने से भी कुछ नहीं होता।

बाल की खाल

इस तरह कुछ कहते-सुनते खाँसी आने लग जाए तो क्या खाए, न खाए के खाँचों का खात्मा ही नहीं होता। खुद खीरा खाते हैं पर खाँसने वाले को मना कर देते हैं। इस खुदगर्जी से खुदकुशी करने का मन हो जाए तो कोई खानदानी आपके सामने खुबानी पेश कर अलग तरह से खिदमत और खातिरदारी कर देता है तो उनके खानसामा अलग खाद्य पदार्थ बनाते हैं। कभी वे खारे होते हैं तो कभी खालिस खारिक डले हुए।

खानाबदोश खाने-खेलने की खामख़ा खानापूर्ति नहीं करते, उनका खुरदूरा जीवन खारिज हो जाता है तो वे ख़ामोशी लगा लेते हैं। अमीर हो, गरीब हो, सबके खेमे में यह होता है कि वे खालीपन को भरने के लिए कभी खिजाब लगा खाला के घर जाते हैं या खाविंद कर लेते हैं। अब बाल की खाल निकालने से क्या मतलब! खैर, यह ‘ख’ ही तो सबकी ख़ैरियत पूछता है।

‘ख’ की ख़्याति

इस ‘ख’ की ख़ासियत यह है पर उसे लंबा खींचने में कोई मतलब नहीं है। थोड़े में बात कही जाए तो खजुआहट नहीं होती और खिलखिलाहट बनी रहती है। ‘ख’ की ओर खिसकिए तो इसका खिलंदड़ापन सामने आ जाएगा। ठीक इसका विरोधाभास भी इस ‘ख’ में है। ‘खिसियानी बिल्ली खंबा नोचे’ में वो खीझ, खुन्नस दिख जाती है, जबकि खुद्दार लोग खुशनसीब होते हैं, वे खुर्राट नहीं होते, क्योंकि वे खुलकर बात करते हैं, खुसफुसाते नहीं, खुद-ब-खुद खुशनुमा रहते हैं।

उन्हें किसी तरह की खुशामद की ज़रूरत नहीं पड़ती। वे खुश्क नहीं होते, उनकी खुशबयानी की खुशबू हर तरफ़ खूबसुरती बिखेरती है। वे किसी खूँटी से बंधे नहीं होते, इसलिए खूनी, खूंखार या खूसट भी नहीं होते। वे खोटे नहीं होते, कोई खोल या खाल नहीं ओढ़ते। खौलते पानी में भी डाल दिया तब भी वे खालिस बाहर निकलेंगे। कई ख़्यातनाम लोग इस ‘ख’ से मिल जाएँगे। बताइए आपको किसके ख्वाब आते हैं, उन्हें ख़ाक में मत मिलाइए। जिनकी ख़्वाहिश है, हो सकता है वो भी आपका ख़्वाहिशमंद हो, ख़्वाज़ा से दुआ कीजिए, ख़ुदा के सामने कुबूल कीजिए और ‘ख’ की ख़्याति को इसी तरह फैलने दीजिए।