ककहरे का कलश

ककहरे का कलश

जहाँ बारहखड़ी ख़त्म हो जाती है, वहाँ से ककहरा शुरू हो जाता है। कई साल पहले छोटी कक्षा में कंठस्थ किया ‘क, कमल का’ और केंद्र में रहा ककहरा- ‘क, का, कि, की, कु, कू, के, कै, को, कौ, कं, कः’ ... कुछ भी करना हो तो क के कंधे पर ही चढ़ना पड़ता है।

कपोल कथा

साधारण से कपड़े पहने कटी पतंग के पीछे कठिनाई से भागते कँटीले रास्ते कम उम्र की कमसिन कथा होते हैं। ऐसा नहीं था कि कंगाली होने पर ऐसा किया जाता हो, यह तो उस कच्ची उम्र का कोमल आनंद था। कपोल कथा की तरह ‘कदंब तरु तले’ केवल कृष्ण ही नहीं, आपमें से कोई कान्हा भी खेला हो, भागते-भागते कभी कठफोड़वा देख रुक गया हो तो किसी घर की कढ़ाई में कड़छी चलने की आवाज़ ने भूख जगा दी हो और कथित कजिन के साथ घर लौटा हो।

‘पहले कुल्ला कर लो’, की हिदायत के साथ कराहती दादी पूछती ‘कहीं कुश्ती करके आए हो क्या’? कुल्हड़ की चाय के बाद शाम को कराह छोड़ कुशलता से करुणाष्टक पढ़ती और कुमकुम लेकर धूप-दीप और कपूर की आरती करती, एक कटोरी चीनी माँगने आई पड़ोस की काकी और किसी को कटोरा भर भेजी गई सब्जी...उन दिनों की बात थी, जब कटहल का अचार बनता था और ‘क जाने’ किस-किसके यहाँ पहुँचाया जाता था।

‘कुड़कुड़ाना’ और ‘कुढ़ना’

बचपन के उन कतिपय दिनों में कोई कपट-कटुता, कुटिलता नहीं थी, कतई कट्टरता नहीं थी। कुड़कुड़ाते थे पर किसी पर कुढ़ते नहीं थे। ‘केवलज्ञानी’ नहीं, कमअक्ल थे, कमज़ोर भी और कठोरता मतलब कड़क कक्षाध्यापक का कड़कना और उनकी कत्थई आँखों से कंपित होना ही पता था। उनकी डाँट पर कुटाई के डर से थोड़ा कुरेदने पर ही कुसूर न भी तो तब भी बहुत कुछ कबूल कर लेते थे। उसमें कोई कमतरता नहीं लगती थी। कमोबेश उन दिनों की सबका यही कथानक होता था।

कोई कुमार ‘केसरिया बालमा’ बनकर किसी कुमारी के केश सहलाते हुए कहकहे लगाता। उस वक्त तो यही लगता कि ‘सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का’? वे क्रांति करने के दिन होते लेकिन करवट पर रात काटने वाले इससे जुड़ी क्रमबद्ध क्लिष्टता को जान जाते। कहीं कुटिया में रहने वाले करघे पर सूत कातते, करताल लेकर करतार बजाने वाले फटकार लगाते हुए कहते यह कुलीन नहीं और करमजला कह देते और ‘कर्म फूटे’ की कहावत से ‘घोर कलयुग’ कह देते। वे कोपभवन में गई कैकयी और कुंभकर्ण की कथा सुनाते और कर्ण की भी।

करिश्माई कवायद

‘जैसी करनी, वैसी भरनी’ की कूटनीति से कालांतर में कालखंड बदला और कालचक्र ने आगे कइयों को कोर्ट-कचहरी भी समझवा दी। काला अक्षर का कद बढ़ने के साथ ‘क का कंपार्टमेंट’ आपके कपाल में करिश्माई कवायद करवाता है। यह कामचोर बनने नहीं देता और करंट लगने की तरह इसका कारनामा होता है और कुछ कौंध जाता है।

कठमुल्लेपन की ‘कछुआ चाल’ कचोटने लगे तो इसका कलाबाज-सा कलश कमबख़्त लगता है, कृमि और केंचुआ लगता है लेकिन इससे कमनीय और कौन हो तो ऐसी कल्पना भी नहीं होती। किसी के लिए यह काजू-मेवा है तो किसी की कजरारी आँखों का काजल। इससे कारतूस है तो कारावास भी। इससे केवल कालिमा नहीं है, यह कल्याणप्रिय है और मधुर कलाकंद खिलवाता है पर यही कर्कश भी है। कोई इसे कैज़ुअल लेकर नहीं चल सकता।

किस्म-किस्म का किस्सा

काक की तरह काइयाँ भी इसी से हैं तो कामचोर भी लेकिन इसीसे कर्तव्य है, कर्तव्य परायणता है, कर्मठता है तो कर्मकांड भी। कर्महीन बनाने वाला यही कर्मवीर बनाता है। किसी को कृषक तो कसम से करोड़ों को यह कर्मचारी से कामयाबी दिलवा कलेक्टर या फिर कलमकार,कवि या कलाकर्मी बनवाता है। कारोबार चल निकले तो यह करदाता बनाता है या करमुक्त करवाता है। किंचित् इसके कार्यकाल में कलंक लगाता है तो कलंकमुक्त भी यही करता है। काश इसकी कार्यशाला कालजयी रहे। पर यह तो किस्मत का किस्म-किस्म का किस्सा लिखा होता है।

कीमती कहानी

कच्ची कैरी खाने के दिनों से कैल्शियम और कैप्सूल लेने तक के दिन ‘कक्का जी’ को याद आ जाते और कंप्यूटर जब कभी कम बैटरी दिखाता तो इसकी कीमत पता चलती है कि ज़िंदगी की कहानी कोई कॉमेडी नहीं है। ज़रा कोताही बरती कि किताब कोनों से फटने लगेगी। इसका हर कौर करीने से चखिए तो देखिए कसैलापन नहीं लगेगा।