‘झ’ की झिलमिल करती झालर

‘झ’ की झिलमिल करती झालर

‘झिझिकत झुझुकत लपक-झपक...झिकत झुकत’...ये लोकभाषा के काव्य से आते शब्द हैं जो झाँककर ‘झ’ की झाँकी बता देते हैं। झकास ‘झ’ से हमारा ऊँचा झंडा है जिसके लिए हम झंडा वंदन करते हैं। इसकी मान वंदना में यदि किसी को झपकी लग जाए तो यह तुरंत झटकाता और झझकोर कर झँझोड़ देता है। इस झटके से कोई झेंप भी जाए तो क्या! वैसे इसमें कोई झक्कीपन नहीं है।

झंकृत करती झंकार

एक कहावत है कि ‘झरबेरी के जंगल में बिल्ली भी शेर होती है’। लेकिन इसका खुद का ऐसा कोई झरबेरी का जंगल नहीं है। इसे यह पता है कि ‘झटपट की घानी, आधा तेल आधा पानी’, इसलिए यह आराम-इत्मीनान से ‘झार बिछाई कामरी, रहे निमाने सोई’ को अपनाता है। ‘झ’ की झालर इतनी झिलमिल करती है कि लगता है जैसे इसके पास कोई झल्लाहट हो ही नहीं सकती। झाड़ और झंखड़ का कोई झंझावात जैसे इसके पास नहीं है। इसके पास कोई झन्नाहट, झुंझलाहट नहीं बल्कि झनक-झनकर से झंकृत करती झंकार है।

झक्कीपन, झगड़ालू वृत्ति और झमेला इसे झपट नहीं पाता, झट इससे दूर हो झटक देता है। बेवजह के झंझट यह नहीं पालता। इसके पास एक समझदारी है कि ‘झगड़े की तीन जड़, जोरू, ज़मीन और जर’ (संपत्ति)। झकझक और झकझोरी इसे पसंद ही नहीं। छीना-झपटी हो जाए तो वह झड़प में बदल सकती है इसलिए भले ही कोई इसे झल्ला कहे लेकिन नहीं चाहता कि कोई इसका क्रोध झेले और यह तुरंत झमाझम झरने-सी झलकती प्रेम धार झरा देता या झूठा गुस्सा भी ज़्यादा हो तो झरोखे या झिर्री से झलक भी नहीं दिखाता। यह चुप्पी फिर अधिक झन्नाटेदार होती है। इस झाग को झाड़ने के लिए शांति की श्वेत झंडी दिखानी पड़ती है वरना यह हमेशा के लिए पल्ला झाड़ सकता है। पर यह किसी को झुलसाना नहीं चाहता।

झीनी-सी झलकियाँ

‘झ’ की ये झलकियाँ भी बड़ी झीनी-सी हैं। उन्हें दिखाने में इसे बड़ी झिझक होती हैं। झुंड में तो यह कुछ भी कहने को झुठला देगा। कोई झुनझुना देकर इसे भरमा नहीं सकते। झूठ के झाँसे की झिल्ली को यह तोड़ देगा। देखिए इस ‘झ’ के पास झूठ से सावधान करने की कितनी सारी कहावतें हैं जैसे ‘झूठ कहना और जूठा खाना बराबर है’ या ‘झूठ कहे सो लड्डू खाए, साँच कहे सो मारा जाए’। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि यह झूठ की तरफ़दारी करता है। यह कहता है ‘झूठा (जूठा) भले ही खा लो पर झूठी बात कभी मत करो’।

‘झ’ तो सावधान करता है कि ‘झूठ की टहनी कभी फलती नहीं, नाव कागज़ की सदा चलती नहीं’, मतलब ‘झूठ लंबे समय तक नहीं टिकता है’ याने कि ‘झूठ की नाव मँझधार में डूबती है’। यह थोड़ी ठिठौली भी कर कहता है- ‘झूठ के पाँव कहाँ’ या ‘झूठ के पाँव नहीं होते’। फिर भी आपको लगता है कि झूठ बोलना ही है तो ‘झूठ तितौंही बोलिए, ज्यों आटे में नोन’, मतलब आटे में नमक इतना ही झूठ बोलिए क्योंकि बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो अगर झूठ न बोलें तो उनका पेट फूल जाता है, जिसके बारे में यह कहता है ‘झूठ न बोले, तो अफ़र जाए’।

याद है हम बचपन में कहा करते थे ‘झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे साँप है’। ऐसा इसलिए कहते थे क्योंकि हम जानते थे कि झूठ बोलने के लिए अच्छी यादाश्त होनी चाहिए ताकि याद रहे कि कब किससे क्या कहा था। हालाँकि यह कलियुग है इसलिए पहले तो ‘झूठ बोलने वाले को मौत आती थी, अब बुखार भी नहीं आता’। तब भी गाँठ बाँधने वाली बात है कि ‘झूठे की क्या दोस्ती, लँगड़े का क्या साथ, बहरे से क्या बोलना, गूँगे से क्या बात’। ‘झूठे की क्या पहचान, वह बात-बात पर कसम खाता है’, यह पुरानी कहावत बताती है कि जो हर बात पर कसम खाए, समझ लो वह पक्का झूठा है।

एक बहुत दार्शनिक कहावत है कि ‘झूठे घर को घर कहें, सच्चे घर को गोर’, गोर मतलब कब्र। हम इस दुनिया में कुछ दिनों के लिए आते हैं और कुछ दिन जहाँ रहते हैं, उसे घर कहने लगते हैं और जो हमारा अंतिम ठिकाना होता है उसे हम कब्र समझते हैं। इसे ही इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि ‘झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद, जगत चबेना काल का, कछु मुख में कुछ गोद’, इसका अर्थ भी वही है कि जिस व्यक्ति के पास धन-दौलत, जायदाद, पत्नी-बच्चे इत्यादि सांसारिक सुख हैं, वह मन से बड़ा प्रसन्न होता है पर वह भूल जाता है कि ये सब क्षणभंगुर हैं। एक और कहावत है ‘झूठे मीठे वचन कहि ऋण उधार ले जाए, लेत परम सुख ऊपजै लैके दियो न जाए’ मतलब उधार लेने वाला झूठ बोलकर उधार ले लेता है और फिर लौटाना नहीं चाहता। झूठों के बीच कोई सच्चा मिल जाए तो क्या होता है- ‘झूठों में झूठा मिले, हाँजी-हाँजी होए, झूठों में सच्चा मिले, तुरत लड़ाई होए’।

झाड़-फ़ानूस

ऐसा यह ‘झ’ है जो किसी को लंबे समय तक झुलाए रखना नहीं चाहता। इसे झाड़-फ़ानूस पसंद है लेकिन झाड़फूँक बिल्कुल नहीं। क्योंकि इसका साबका ऐसे लोगों से हो चुका होता है जो कहते हैं ‘झाड़ूँ-फूँकूँ चंगा करूँ, दैव ले जाए तो मैं क्या करूँ’। ‘झ’ इतना झलाऊ नहीं है। इसे फालतू की झाँय-झाँय बर्दाश्त नहीं होती। यह जानता है कि ‘झुके पेड़ पर बकरी भी चढ़ जाती है’ इसलिए यह किसी के सामने खुद को कमज़ोर नहीं पड़ने देता। इसे पता है कि ‘झगड़ा झूठा, कब्जा सच्चा’ होता है इसलिए यह हर समय सतर्क रहता है।

झूमेगा-नाचेगा

यह कोई झोल नहीं करता। पुराने शहरों के बारे में बहुत से लोक कथन हैं जैसे ‘झाँसी गले की फाँसी, दतिया गले का हार, ललितपुर तब तक न छोड़िए, जब तक मिले उधार’। हालाँकि झुरमुट में कहीं किसी झाँसी की युवती का झुमका गिर जाए और ये झारखंड का भी हुआ, तब भी उसे उठाने के लिए झुकेगा और झुकवाएगा भी। झुकी नज़रों से एक बार उठी झुरझुरी को वो झाँइयाँ या झुर्रियाँ पड़ने की उम्र तक झील-से आते झोंके-सा ताज़ा रखेगा। भले ही फिर इसकी झोली में बड़ी हवेली में रहना लिखा हो और झुग्गी-झोंपड़ी में इसके पास झिलंगा खटिया (ढीली खाट) हो, पर यह उस सच के साथ जीता है, ऐसा नहीं सोचता कि ‘झोपड़ी में रहे, महलों के ख़्वाब देखें’। यह पलक झपकते झड़ेगा भी नहीं बल्कि नियति को झमूरा मान उसकी डुगडुगी पर बिना शिकायत किए झूमेगा-नाचेगा, झीखेंगा नहीं, खुद को झोंक देगा झींगुर बजने तक। बजता रहेगा अनवरत सितार पर झाला...

(भाषा परिशिष्ट में पढ़ सकते हैं अब तक के सारे वर्ण).......