हो जाइए मगन

हो जाइए मगन

‘वक़्त से पहले और भाग्य से ज़्यादा कुछ नहीं मिलता’। घिसा-पीटा वाक्य लग रहा है न यह। हमारे यहाँ हमेशा कर्म और नियति प्रदत्त भाग्य की बात होती आ रही है। सकारात्मक चिंतन करने वाला सोचता है कि वह कठिन परिश्रम से भाग्य का लिखा बदल सकता है और नकारात्मक विचार करने वाला सोचता है कि वह कितना भी कष्ट कर ले, होना वही है, जो उसके भाग्य में लिखा है।

तटस्थ रूप में सोचते हुए आपको दोनों ही बातें सही लगती हैं, फिर किस पर विश्वास किया जाए?

आपका प्रोफ़ाइल

दरअसल दोनों ही बातें सही भी हैं...कैसे...वह ऐसे कि यदि सबसे बदतर स्थिति के बारे में सोचें और आपके प्रारब्ध में भिखारी होना लिखा है तो वह आपका प्रोफ़ाइल है, आप उसे बदल नहीं सकते। फिर उसे कैसे बदला जाए...तो उसे बदला जा सकता है।

आपके जीवन में भिखारी होना लिखा है, तो आपको दर-दर की ठोकरें खानी ही पड़ेंगी, भीख माँगनी ही पड़ेगी। अब आपका चयन है आप क्या माँगते हैं?

मीरा बाई की तरह प्रेम की भिखारिन बन हरि नाम की भिक्षा माँगने लगिए..हो सकता है आपको भी ‘राम रतन धन’ मिल जाए।

किसी सड़क पर भीख माँगने से अच्छा मंदिर-मस्जिद के सामने खड़े हो जाइए...भले ही तब आपको कुछ समझ न आए लेकिन भूले-भटके आपके मुँह से भी सुमिरन हो ही जाएगा।

कभी...किसी को बद बोलने से अच्छा है कि मुँह से अच्छा कहा जाए... आप इसे पाखंड कह लीजिए लेकिन इस पाखंड में किसी का नुकसान तो नहीं है, किसी को चोट पहुँचाने की मंशा तो नहीं होगी न..

दान में मिली गाय के दाँत नहीं गिनते...पर हो सकता है किसी दिन दान में आपको गाय ही मिल जाए और आपका दूध-दही का कारोबार शुरू हो जाए...कुछ भी हो सकता है।

आपको यह भी अतिशयोक्ति की तरह लग रहा हो तब भी इतना तो समझेंगे न कि सड़क की ख़ाक-धूल छानते भीख माँगने से कहीं अच्छा है किसी मंदिर या किसी दर की शरण लेना...

आप क्या करते हैं?

अब दूसरी स्थिति पर विचार कीजिए यदि आपके भाग्य में चालक होना लिखा है तब भी सकारात्मक सोच रखिए। दुनिया को चलाने वाले को भी चालक, पालक, संहारक कहते हैं। चालक के घर महारथी कर्ण भी पैदा हुआ था और कृष्ण से बड़ा चालक (सारथी) कौन होगा?

अपने सामने लक्ष्य ही रखना है तो बड़े और उससे भी बड़े रखिए तब हो सकता है सौ का दसवाँ हिस्सा आप कर पाएँगे। यदि लक्ष्य ही छोटा रखा तो आप उससे भी कम करेंगे, हो सकता है कुछ न कर पूरा जीवन निठल्ले गुज़ार दे।

डाकू वाल्या के महर्षि बाल्मीकि होने की कहानी तो सबको पता होगी। पूर्व उल्लिखित मीराबाई राजघराने से थी, कबीर जुलाहे थे, संत कवि रैदास (रविदास) जूते बनाने का काम करते थे। संत तुकाराम देहू गाँव के महाजन थे बाद में विपन्नावस्था हो गई।वेऔर उनकी पत्नी रखुमाबाई घर-परिवार सँभालते हुए भक्ति के मार्ग पर बहुत लंबी यात्रा कर चुके थे। रसखान कृष्ण भक्त मुस्लिम कवि थे।

मतलब आप किस परिवार, किस संप्रदाय या किस व्यवसाय से संबंध रखते हैं इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता, फ़र्क तो तब पड़ता है कि आप क्या करते हैं और अपने जीवन को कैसे आकार देते हैं

जिन्होंने अपने जीवन को आकार दिया, वे ही तर पाए हैं और जिन्होंने कुछ नहीं किया उनका कुछ न हो सका है। लाखों-करोड़ों लोग जन्म लेते और मरते हैं और उन सभी के पास उतना ही समय होता है, जितना कुछ कर दिखाने वालों के पास।

एक्सपायर होने से पहले

कुछ कर दिखाने का मतलब नाम, धन, शोहरत, इज़्ज़त कमाना भर नहीं है। आप कौन हैं, यहाँ इस धरती पर क्यों आए हैं, क्या केवल जब तक साँसों का पिंजर चल रहा है तब तक जीना ही, जीना है।

आपका शरीर भी एक मशीन है और उसकी भी एक्सपायरी डेट है। अब उसके एक्सपायर होने से पहले या तो उस मशीन से बहुत अच्छा आउटपुट ले लीजिए या ट्रैश इनपुट डालते हुए ट्रैश बाहर निकालिए या तीसरी आशंका भी है कि उसे धूल धूसरित होने दीजिए

बेहतर सलाह तो यही दी जाएगी कि कम ईंधन में जो अच्छा माइलेज दें उस गाड़ी का इंजिन अच्छा माना जाएगा। एक बेजान मशीन के लिए जो बात लागू होती है क्या वह जानदार इंसानों पर लागू नहीं होगी।

व्यक्ति के रूप में अपनी यात्रा को अपने पक्के स्वरूप तक ले जाइए और वहाँ स्थिर होने की कोशिश कीजिए। जो आपका पक्का स्वरूप है जो आपकी आपके बचपन से अब तक की पहचान है।

उस तत्व को पकड़िए और उसमें रम जाइए। अपने आपमें रहने का जो सुख है उसे जान लिया तो लगन लगेगी...जो आपको भी उस बिंदु तक ले जाएगी जहाँ मीरा हो गई थी मगन...मगन रहिए, अपने में रहिए