डूबना ही है तो कला में डूबिए

डूबना ही है तो कला में डूबिए

विश्व नृत्य दिवस (29 अप्रैल) पर विशेष

कुछ सालों पहले न्यूयॉर्क अस्पताल में कैंसर से जूझती एक टीनएजर की कविता आँखों के सामने से गुज़री थी। ‘स्लो डांस’ उस कविता में वह कहती है, ‘समय बहुत कम है, बहुत तेज़ मत नाचो, संगीत ख़त्म नहीं होगा। कभी अपने आपसे पूछो कैसे हो?’ हर पद्यांश के बाद कविता में वह दोहराती है ‘बहुत तेज़ मत नाचो। किसी गीत के ख़त्म हो जाने से पहले उसका संगीत सुन लो...स्लो डांस’।

कलाकार का प्रोफ़ाइल

तब दुनिया को कोविड का ज़रा भी अंदेशा नहीं था। नृत्य की जगमगाती दुनिया में लगातार कार्यक्रम हो रहे थे। जैसे कलाकार का प्रोफ़ाइल मंच प्रदर्शन तक ही सीमित रह गया था। कला, कला के लिए होती है। कला आत्मिक विकास के लिए होती है, इसे भूल नृत्य का बाज़ार सज गया था और उस बाज़ार में माँग और पूर्ति के नियम को पूरा करने वाले कई छोटे-बड़े प्यादे बिसात पर बिछे थे।

यदि प्रदर्शनकारी कलाएँ या नृत्य इतने बड़े व्यापार में नहीं बदल गए होते तो कोविड के बाद उससे जुड़े सैकड़ों लोगों पर रोज़गार का ख़तरा नहीं मंडराता,वे निश्चित ही शुरू से कमाने के लिए कुछ और कर रहे होते और कला को साधना की तरह ही करते।

इस समय ने फिर रेखांकित कर दिया है कि सरस्वती और लक्ष्मी साथ नहीं रह सकतीं। जिन्हें सरस्वती की उपासना करनी है, कला की अराधना करनी है, उन्हें लक्ष्मी के मोह-जाल से उठना ही होगा। अब इस दौर में वे कलाकार ही बचेंगे जो इसे साधना की तरह करते आ रहे हैं। जो आधे पेट या भूखे पेट सोकर दिन गुज़ार लेंगे लेकिन कला को बिकने नहीं देंगे।

प्रोफ़ेशनल डांसर

मुट्ठीभर ऐसे लोग हैं जो कला से मिलने वाले पैसे को कला के लिए ही खर्च करते हैं। मतलब नृत्य कक्षाओं से होने वाली आमदनी को कला के आयोजनों के लिए, संगतकारों को मानधन देने या मंच सज्जा, वेशभूषा आदि के लिए खर्च करते हों, अपनी शान-शौकत पर नहीं।

नृत्य को समर्पित यूनेस्को की संस्था सीआईडी तक मानती है कि प्रोफ़ेशनल डांसर वह होता है जो डांस के ज़रिए पूरी तौर पर या आंशिक रूप से कमाता है। इसमें डांस टीचर्स, कोरियोग्राफ़र और परफॉर्मिंग डांसर शामिल हैं। डांस स्कूल वे माने जाते हैं जो संस्थान डांस क्लासों के लिए शुल्क लेती हैं। इस तरह सीआईडी भी कई डांस क्लबों, गैर प्रदर्शन करने वाली कंपनियों, लोक नर्तकों के समूहों और प्राथमिक या माध्यमिक स्तर पर बच्चों के लिए आयोजित की जाती डांस क्लासों को छोड़ देती है।

यदि इन सबकी भी गणना की जाए तो नृत्यकारों का आँकड़ा हज़ारों पार का होगा, जिन पर कोविड काल में संकट छा गया है। जो पहले भी नृत्य के ज़रिए नगण्य कमाते थे और अब तो उनकी कमाई ऋणात्मक चिह्न में चली गई है।

वैश्विक नृत्य परिदृश्य

चूँकि आज विश्व नृत्य दिवस (29 अप्रैल) है इसलिए हमें विश्व के संदर्भ में ही अपना नज़रिया देखना चाहिए। पूरे विश्व के नृत्य परिदृश्य को लेकर सीआईडी का कहना है कि हर देश की एक हज़ार की आबादी पर एक व्यावसायिक नर्तक और हर दस हज़ार की आबादी पर एक डांस स्कूल हो। इस तरह जिस देश की आबादी दस मिलियन है तो वहाँ दस हज़ार नर्तक और एक हज़ार डांस स्कूल होने चाहिए। लेकिन सामान्य परिस्थितियों में भी क्या ऐसा देखा गया है? यह बहुत ही आदर्श आँकड़ा है।

आँकड़ों के आसपास

यह भी तथ्य है कि समृद्ध देशों में तब भी इसकी गुंजाइश है और समृद्ध देश अधिकांश ईसाइयत को मानने वाले हैं जहाँ आँकड़ा लगभग दुगुना है, आदर्श स्थिति में एक हज़ार की आबादी पर एक शिक्षक होना चाहिए तो विकसित देशों में आँकड़ा कुछ और (5,000/1) है जबकि मुस्लिम देशों में (जो विश्व आबादी के एक चौथाई हैं) यह आधे से भी कम है।

यूनाइटेड स्टेट्स में 660,000 नर्तक और 66,000 नृत्य विद्यालय और केवल कनाडा में 80,000 नर्तक और 8,000 नृत्य विद्यालय होने चाहिए। यूरोप के कुछ देशों जैसे फ़्रांस, इटली में यूएसए (5,000/1) की तुलना में अनुपात अधिक अच्छा है जबकि स्कैंडेनेविया में यह औसत से बहुत कम है। अधिकांश देश इन आँकड़ों के आसपास हैं।

ग्रीस में एकदम सही औसत है मतलब दस मिलियन की आबादी पर 1,000 स्कूल और 10,000 नर्तक। सीआईडी के इन आँकड़ों में भारत कहीं नहीं है।

शो-बिज़

कुछ विचार इस पर कर लेते हैं कि ऐसा क्यों है? भारत मध्य मार्ग का हिमायती रहा है। मतलब स्कूली या कह लीजिए कुछ हद तक महाविद्यालयीन स्तर पर लड़कियाँ और तुलनात्मक रूप से कम लड़के नृत्य की विधिवत् तालीम लेते हैं। उसके बाद उसे करियर के रूप में सोचने वाले वे होते हैं जो सीधे-सीधे ये सोचते हैं इससे आमदनी कैसे और कितनी होगी।

विपणन और प्रबंधन का ज़ोर इस क्षेत्र में भी इतना हावी है कि वे सारा ज़ोर पैकेजिंग पर लगा देते हैं। विज्ञापन और ऊपरी कलेवर शानदार होता है लेकिन वे भूल जाते हैं कि उसका जो मर्म है, जो मूल है, उसमें जो कला है, वह भी तो शानदार होनी चाहिए इसलिए बड़े-बड़े शो-बिज़ की तरह वे पैसा तो कमा लेते हैं लेकिन जब तक उनका सिक्का चलता है तब तक ही उनके यहाँ सिक्के खनकते रहते हैं। अब चारों ओर ठन ठन गोपाल के हालात हैं तो किसी का सिक्का नहीं चल रहा, किसी की तूती नहीं बोल रही। तो ऐसे हालात में क्या करना होगा।

बेदर्द छलनी

रियाज़, साधना, आत्म परिष्कार, इसके अलावा कोई मार्ग नहीं है। सरस्वती कला के साधकों पर प्रसन्न होती है। इस वक्त की बेदर्द छलनी में से वही छनकर बचेगा जो नृत्य को नृत्य के लिए करेगा। जो मोर की तरह जंगल में नाचेगा, भले ही कोई देखे-न देखे। यह समय जैसे जंगलों की ओर लौटने, प्रकृति की ओर लौटने का समय है, वैसे ही एकांत साधना का भी समय है। कला के क्षेत्र में लॉक डाउन कलाकार की तपस्या की पराकाष्ठा आज़मा रही है कि कौन तर पाएगा, कौन डूब जाएगा? डूबना ही है तो कला में डूबिए, अपने आप तर जाएँगे।