बदलाव की कुंजी हमारे हाथों में

बदलाव की कुंजी हमारे हाथों में

असंतुलन जब भी होता है, व्यवस्था चरमरा जाती है। यह केवल भौगोलिक, प्राकृतिक, राजनैतिक या वैश्विक स्तर पर नहीं होता, व्यक्तिगत स्तर पर भी इसे महसूस किया जा सकता है। यदि इसे महसूस किया जा सकता है तो इसे बदला भी जा सकता है।

हमारा जैसा विश्वास होता है, वैसे ही विचार हमारे मन में आते हैं, जैसे हमारे विचार होते हैं, वैसी भावनाएँ हमारे मन में आती हैं, भावनाओं का संबंध अनुभूति से होता है और हम अपनी अनुभूति से ही विश्व से जुड़ पाते हैं।

वैश्विक बदलाव की बात तब तक नहीं हो सकती, जब तक हम अपने आपको नहीं बदलते। हर बदलाव की कुंजी हमारे अपने हाथों में है। यदि विश्व बदलने का जिम्मा हमारे कंधों पर है तो हमें केवल बाहरी स्तर पर नहीं, भीतरी स्तर पर भी बहुत संतुलित रहना होगा।

बैसाखियों की तलाश

शारीरिक गठन ने हमें स्त्री या पुरुष बनाया है, वैसे देखा जाए तो हम केवल अणु-परमाणु हैं और जिस तरह के अणुओं से हम अधिक प्रभावित होते हैं उस तरह की ऊर्जा हममें अधिक प्रभावित होती है और हम स्त्रीत्व या पुरुषत्व के गुणों से पहचाने जाते हैं। हमें अपने भीतर इन दोनों गुणों का सही तालमेल बैठाना चाहिए। यदि इन दोनों ऊर्जाओं में सही संतुलन स्थापित कर लिया तो हम अपने आपमें पूर्ण हो सकते हैं।

यदि किसी एक तरह की ऊर्जा कम है तो उसे मज़बूत करना चाहिए लेकिन हम ऐसे में दूसरे पर निर्भर हो जाते हैं। यह सही है कि परस्पर निर्भरता से समाज चलता है और हम सभी एक-दूसरे के पूरक हैं। पर क्या ही अच्छा हो कि हम अपने खुद के ही संपूरक हो जाएँ? यदि कोई हम पर निर्भर है तो इसका अर्थ है कि कहीं न कहीं वह भी परिपूर्ण नहीं है। मतलब दोनों ही बैसाखियों की तलाश में हैं, तो जीवन की दौड़ में कैसे दौड़ा जा सकेगा?

दोनों पैरों का मजबूत होना ज़रूरी है तभी दौड़ जीती जा सकती है। हम जीवन के किसी पक्ष में मज़बूत और किसी दूसरे पक्ष में कमज़ोर होकर नहीं जी सकते। हमें दोनों पक्षों को मजबूत करना होगा। जीवन में कभी हमें पुरुष की तरह कठोर होना होता है, कभी स्त्री की तरह कोमल। कोई एक तत्व हावी होता है तभी हम स्त्री या पुरुष होते हैं, ऐसे में सम अनुपात कभी साध्य नहीं हो सकता, नहीं हो पाएगा लेकिन हम जागरूक रहकर उन ऊर्जाओं का सही समय पर सही उपयोग कर सकते हैं।

स्त्री ऊर्जा

स्त्री ऊर्जाएँ कौन-सी हैं? पूर्वाभास होना स्त्रीत्व की पहचान है। कहते हैं महिलाओं की छठी ज्ञानेंद्रिय बहुत ताकतवर होती है। साथ ही वह मातृत्व की ममतामयी मूरत होती है। वह दूसरे के जख़्मों पर मरहम का काम करती है, मतलब उसमें हीलिंग पॉवर ज्यादा होती है। कठिन परिस्थितियों में कोई महिला अधिक शांत रह सकती है। भावानाओं को समझने का गुण उसमें अधिक होता है। अपनी भावानाओं को अभिव्यक्त करना और दूसरों तक अपनी भावनाएँ पहुँचाने का गुण स्त्री में अधिक अच्छा होता है।

पौरुषेय

अब जानते हैं पौरुष होना मतलब क्या है? पुरुष हर बात को तर्क की कसौटी पर तौलते हैं। वे कारण-मीमांसा करते हैं। कार्य करने की ऊर्जा उनमें अधिक होती है। वे अपनी बात पर दृढ़ रहते हैं। भौतिक संसाधनों को प्राप्त करना उनके लिए अधिक आसान होता है। अस्तित्व के संघर्ष में वे जीत हासिल करते हैं। उनमें सामान्य समझ (कॉमन सेंस) अधिक होती है।

अब आप भी देखिए आप खुद को कहाँ कम पाते हैं और उसमें अपने को सशक्त कीजिए, अपने जीवन में संतुलन ले आइए।