क्या आप योग्य शिष्य बनने के काबिल हैं?

क्या आप योग्य शिष्य बनने के काबिल हैं?

कुछ कहते हैं अपने आपको जानना हो तो एकांत में बैठिए, शांत हो जाइए, मनन-चिंतन कीजिए। कुछ कहते हैं अपनी ऊर्जा को सीमित मत रखिए, उसे विस्तार दीजिए। अपने सहधर्मियों को तलाशिए और उनके साथ सत्संग-कीर्तन कीजिए।

टेलरमेड उत्तर

ऐसे में समझ पाना मुश्किल होता है कि अकेले बैठना है या संग तलाशना है। और ऐसे ही में गुरू मददगार होते हैं। गुरू आपके प्रश्नों के टेलरमेड उत्तर देते हैं। टेलरमेड मतलब जो आपके लिए योग्य हो, जो आपके अनुरूप हो, जो आपकी इस समय की स्थिति के अनुकूल हो। हो सकता है आपके लिए एकांत अधिक महत्वपूर्ण हो या हो सकता है आपको दूसरों की संगत की आवश्यकता हो। जिस वस्तु को बाजार से खरीदा नहीं जा सकता, जिसे चोरी करने पर भी नहीं प्राप्त किया जा सकता, उसी वस्तु को गुरूदेते हैं। गुरू उस मर्म को समझते हैं और दिशा देते हैं। यही वजह है कि श्रीकृष्ण को अवतार माना जाता है लेकिन जब वे मानव शरीर धारण करते हैं तो संदीपनी उन्हें ज्ञान देते हैं।

प्रत्यक्ष ज्ञान

क्या वे अनभिज्ञ होंगे? कदापि नहीं, श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञ हैं, वे सर्वज्ञाता हैं। उसी तरह आप, मैं और हम सब भी हैं। ज्ञान कहीं बाहर नहीं बल्कि हमारे भीतर ही है, जिसे हम भूल चुके होते हैं और फिर कोई जाम्बवत की तरह हमारे भीतर के भूले-बिसरे हनुमान को याद दिलाता है कि तुम जो चाहे कर सकते हो, समुद्र तक लाँघ सकते हो। यह समझना भी बहुत ज़रूरी है कि गुरू और शिक्षक में अंतर होता है। शिक्षक आपको शब्द बोध करा सकते हैं लेकिन उसके अर्थ को गुरू समझाते हैं। गुरू उस अर्थ का आपके जीवन में जो निहित अर्थ है, उसे समझाते हैं। गुरू किसी कालावधि तक प्रकाशित नहीं करते बल्कि वे अखंड ऊर्जा के समान सतत प्रवाहित होते हैं। वे स्वयं प्रत्यक्ष ज्ञान होते हैं।

दिशा और दशा

कभी-कभी आपको लगता है कि आपको सही समय पर सही गुरू मिल जाते तो आपकी दिशा और दशा बदल जाती। ऐसा नहीं होता। आपको वैसे ही गुरू मिलते हैं, जैसी आपकी तैयारी होती है। नर्सरी की कक्षा में पीएचडी के स्तर का गुरू मिल भी जाएँ तो मॉन्टेसरी में जाने की समझ रखने वाले के लिए उसका कोई उपयोग नहीं होगा। उस समय उसे बड़ा ज्ञान मिल भी गया तो उसके लिए उपयोगी नहीं होगा। उस समय उसे मॉन्टेसरी ट्रेन्ड टीचर ही चाहिए, प्रोफ़ेसर नहीं। आपकी तैयारी बढ़ेगी, जैसे-जैसे आप अगली कक्षाओं में जाएँगे आपको उस स्तर के शिक्षक मिलने लगेंगे, जितनी आपकी क्षमता विकसित हो चुकी होगी।

जाका काम, वाको साजे

कुछ लोग सवाल कर सकते हैं कि बहुतेरे प्रतिभावान् होते हैं, लेकिन तब भी उन्हें योग्य शिक्षक नहीं मिलते। नहीं, फिर गफ़लत हो रही है। प्रतिभावान् होंगे लेकिन हो सकता है उनकी प्रतिभा उस क्षेत्र से कहीं अधिक किसी दूसरे क्षेत्र में चमक दिखा सकती है। अर्जुन महान् धनुर्धर है पर आवश्यक नहीं कि वो मल्लयुद्ध में भी कुशल हो। मल्लयुद्ध के लिए भीम का चयन होगा। यदि अर्जुन मान लेता कि उसे द्रोणाचार्य के रूप में ग़लत गुरू मिल गए और वह तो बेहतर शास्त्रज्ञ हो सकता था, तो यह उसकी चूक होती। धर्मराज के पद के लिए युद्धिष्ठिर ही योग्य माने गए। ‘जाका काम, वाको साजे’ की तरह यह बात है। अर्जुन ने तीरंदाज़ी में योग्यता दिखाई तो द्रोणाचार्य ने उसे तीरंदाजी के पाठ दूसरों से कहीं अधिक दिए।

ढाई आखर

मानकर चलिए आप जिस क्षेत्र में हैं, उस क्षेत्र में आप दूसरों से अधिक बेहतर कर सकते थे, इसलिए आप उस क्षेत्र में हैं। आपको दुकान चलानी है तो पोथी पढ़ने का उस तरह उपयोग नहीं होगा, जैसा बही-खाते बाँचने का होगा। फिर कबीरदास जी तो यह भी कहकर गए हैं कि ‘पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ’...मतलब यदि आपको मीरा होना है तो आपके लिए किसी भी पोथी से ‘ढाई आखर’ काफ़ी हैं।

तलाश

आपकी प्यास कितनी बड़ी है और आपकी प्यास किस चीज़ की है, उस आधार पर गुरू या तो अमृत का घट देते हैं या मधुशाला का चषक पकड़ा देते हैं। गुरू को दोष देने से पहले आपको धैर्य से अपनी योग्यता का विस्तार करना होगा। आप चाहते हैं कि आपको वो गुरू मिलें, जिसकी आपको तलाश है तो पहले उस तलाश को अपने भीतर से शुरू कीजिए। देखिए क्या आप उस गुरू के योग्य शिष्य बनने के काबिल हो गए हैं? यदि गुरू ने अब तक दर्शन नहीं दिए मतलब समझ लीजिए, अभी भी आपमें कोई न कोई खामी है, आप तैयार नहीं हुए हैं। कोई भी प्रवेश परीक्षा देने के लिए तैयारी करनी पड़ती है, तब आप उस परीक्षा को उत्तीर्ण कर अपने मनपसंद विषय का आगे का अध्ययन कर पाते हैं। यह भी कुछ इसी तरह है।

तैयारी

अपनी तैयारी करते रहिए, एक दिन गुरू खुद ढूँढते हुए आ जाएँगे और आपका दुनिया से, दुनिया का आपसे परिचय कराएँगे कि देखो यह मेरा शिष्य है। जब तक गुरू नहीं कहता यह मेरा शिष्य है, आपकी साधना वैसी ही अधूरी है जैसे एकलव्य की रह गई थी। एकलव्य को भी प्रतिष्ठा तब मिली, जब गुरू ने स्वीकार किया कि वो उनका शिष्य है और गुरू-दक्षिणा देने की भी तैयारी रखिए, फिर गुरू जो चाहे माँग लें। अंगूठा देने पर ही एकलव्य का नाम इतिहास में हुआ, वरना और भी कई होंगे जो वन में तीर चलाते होंगे।