‘ग’ के साथ आगे बढ़ता गतांक

‘ग’ के साथ आगे बढ़ता गतांक

आज़ादी का गान गाया और गरजते मेघों ने ताल देते हुए गदगद होकर कहा कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमें गणतांत्रिक देश के रूप में पहचान मिली। गई सदी, गत हो गई उसके साथ कई बातें भी गुम हो गईं। किसी ने कहा कि यह नई सदी गतिशील है तो किसी ने इसे गतिहीन जाना।

वो जो ई का ईख था उसे गन्ना भी कहते हैं, गन्ने का रस होता है और रसशाला को मधुशाला भी कहते हैं। बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई न, हम बारहखड़ी के गतांक को इसी ‘ग’ के साथ आगे बढ़ाने वाले हैं।

गुलाबी गगन

इसी ‘ग’ से किसी को गधा कह दो या गँवार तो उसे वह गाली की तरह लग सकता है और गँवारफली की सब्जी तो कइयों के गले से नीचे नहीं उतरती। ‘ग’ पर इतना गुस्सा क्यों? ‘ग’ इतना गंदा भी नहीं है। ‘ग’ से केवल गोबर या ‘गोबर गणेश’ हो ऐसा समझने की गलती न कीजिए। ‘ग’ से गुल, गुलशन, गुलफ़ाम है, ‘ग’ से गालों पर छाई मुस्कान है, ‘ग’ से सुंदर सधा गला और गायिकी में गंधर्व गान है। ‘ग’ से गुलाल है, जो गगन को गुलाबी कर देता है।

गुलमोहर और गेंदा

गुलमोहर के पेड़ तले यह कई बार गजगामिनी गोरी की बेवजह मुस्कान का कारण बन जाता है, ‘ग’ से उसके गेसुओं (बालों) में गुँथा वह गुलाब, उसकी वह गंध है, जो किसी गुनगुनाते भँवरे ने भेजा होगा और ग़मगीन बैठी यह, किसी कली-सी खिल गई होगी और गा पड़ी होगी ‘गोरे-गोरे ओ बाँके छोरे, कभी मेरी गली आया करो’ और इस गीत को सुन फूलों का गुच्छा लेकर उसका गुलाम बन जाने की चाह में आया प्यार में गहराया गठीला गड़बड़ा जाता हो, सब गड्डमड्ड कर देता हो।

ग़ज़ब तो तब ग़र कोई टोक दे कि यहाँ क्यों गश्त लगा रहे हो और वह गड्ढा न देख पाए, प्यार में गाढ़ा डूबे लोगों को यह गणित नहीं समझ में आता और वे उसमें गिरे तो भी गड़ जाते हैं, सिर उठाकर तन जाते हैं। उनके कानों में गब्बर सिंह का डॉयलॉग (शोले) गूँज उठता है कि ‘जो डर गया, वो मर गया’। फिर वह गृहस्थ हो जाता होगा, वह गृहिणी और उनकी गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ती हो और किसी दिन गोधूलि बेला में गोलमटोल बन चुकी वह ग्यारस (एकादशी) का व्रत भी करने लगे और गृहलक्ष्मी-सी गा भी दे- ‘ससुराल गेंदा फूल’।

गैलेक्सी में ‘ग’

इस गैलेक्सी में ‘ग’ से कुछ गंभीर भी होते हैं, कुछ गणमान्य तो कुछ गणप्रमुख। कुछ गरीबों की मदद करने वाले गरीब-नवाज़ होते हैं तो कुछ गरुड़-सी ऊँची उड़ान भरते हैं। कोई-कोई गरल (विष) की तरह बात करने वाले होते हैं कोई गुमान में ऐसी गरिष्ठ बातें बोलते हैं कि हजम ही नहीं होता, उनमें गुरूर होता है। जिन्हें गुमान होता है, उनका कभी भी बेड़ा गर्क हो सकता है, ऐसा गठिया के रोग से परेशान दादाजी कहते थे। वे तो यह भी कहते थे कि कभी किसी ग़लतफ़हमी की गाँठ नहीं बाँधनी चाहिए।

उनकी गाथा लेकर बैठे, तो अतीत के कई गलियारे खुल जाएँगे और स्मृतियों की गैलरी में कोई गलीचा बिछ जाएगा। आपको क्या लग रहा है, हम गपोड़ी हैं और गप हाँक रहे हैं? गर्मियों की छुट्टियों के वे दिन याद कीजिए, आपको भी गर्व होगा कि कैसे गाँव जाने के लिए किसी गाइड की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, न गूगल मैप लगाना पड़ता था। वहाँ जो रहते थे, उन्हें गार्जियन नहीं कहते थे, हर किसी से एक रिश्ता था और उस रिश्ते का एक नाम था। ये तो जब से हम गुसलखाने को वॉशरूम, बगीचे को गार्डन कहने लगे, रिश्तों में गारंटी तलाशने लगे। वरना रिश्तों को कब किसी गवाही की ज़रूरत थी?

‘ग’ की गुठली

गाहे-ब-गाहे कोई भी आ जाता था लेकिन अब कोई भी गायब हो जाता है। क्या हम गिरमिटिया गर्त में डूबे युग की गिरफ्त में हैं? कि सब जगह गुंडे हैं, गुंडागर्दी है, गिरोह और गिरावट है। गिल्ली-डंडे से खेलने वाले दिन मासूम थे, अब इर्द-गिर्द ऐसा कुछ नहीं और केवल गर्द है।

नहीं, नहीं किसी से कोई गिला क्यों करना? यह तो जिस पर गुज़रती है, वहीं जानता है कि गुटका खाए गीदड़ों के सामने कैसे गुज़ारिश नाकाम रहती है। गुत्थमगुत्था वाली ‘ग’ की इस गुठली को गिरा देते हैं। गुर्दे छीलने की की नहीं, गुदगुदाने की बात करते हैं।

अंग्रेज़ी का जो ‘गुड’ है या हिंदी के गुड़ की जो मिठास है, गूँगा जिसे बयाँ नहीं कर सकता, उसकी बात करते हैं, गुरूजी के गुलगुले खाने की बात करते हैं। किसी गुजरिया से गुजिए बनाने की बात करते हैं। ग की गुणकीर्ति कहते हैं, गुणगान गाते हैं। अपने गुणसूत्रों पर अच्छाई गुदवा लेते हैं और सबसे बड़ी बात जिसके गुरुत्वाकर्षण के कारण हम टिके हैं उस पृथ्वी का ग्रेटीट्यूड अदा करते हैं।