फादर्स डे स्पेशल

फादर्स डे स्पेशल

खुद ही खुद को सेलिब्रेट करने वाले पिता

उन्होंने कहा माँ महान् है, इन्होंने कहा पिता महान् है...व्यावसायिक बुद्धि के चतेरों ने कहा दोनों ही महान् हैं। जैसे ‘मदर्स डे’ मनाया जाता है, वैसा ‘फ़ादर्स डे’ भी मनाया जाने लगा। ग्रीटिंग्स, उपहार,तोहफ़े और केक दोनों अवसरों पर खरीदे गए और बेचने वालों ने माता-पिता दोनों के कद को होर्डिंग्स-सा बाज़ार में सजा दिया। कहने वालों ने यह भी कहा कि विदेशों में जहाँ एकल परिवार हैं और बच्चे माँ-बाप से दूर रहते हैं वहाँ इन अवसरों की ज़रूरत है, हमारे यहाँ नहीं। लेकिन विश्व प्रतिस्पर्धा में दौड़ते हुए क्या देश, क्या परदेश ऐसे दिन ग्रीटिंग कार्ड्स बनाने वाली कंपनियों की चाँदी कर गए।

अनदेखा त्याग

देखा जाए तो मनुष्य अपने आप में ईश्वर की महानतम् कृति है तो वह स्त्री हो या पुरुष कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए लेकिन हमने उसमें भेद किया। मानव निर्मित कई भेदों में से यह सबसे बड़ा भेद था जिसने माँ को महिमामंडित करते हुए उसे त्याग की प्रतिमूर्ति कह दिया और पिता कुछ पीछे छूट गए। ऐसा क्यों हुआ कि पिता का त्याग अनदेखा हो गया। उसकी एक बड़ी वजह तो यह रही कि पिता घर से दूर नौकरी-व्यवसाय के कामों में लगे रहे तो बच्चों ने उनके परिश्रम को अपनी आँखों से नहीं देखा।

यदि माँ नौकरीपेशा भी हुई तो उसने घर की जिम्मेदारी निभाई और बच्चों ने फिर माँ को घर के लिए खपते देखा। यदि पिता ने भी घर-बाहर की जिम्मेदारी उतनी ही शिद्दत से निभाई तब भी पिता के बारे में कम ही लिखा गया। इसका दूसरा कारण यह है कि अमूमन लिखने वालों की संख्या सदियों से पुरुषों की अधिक रही। जैसे कहा जाता है महिला किसी दूसरी महिला की तारीफ़ नहीं कर सकती वैसा ही पुरुषों के मामले में भी है। उनका लक्ष्य स्त्री रही तो उन्होंने स्त्री के हर रूप के बारे में खूब लिखा, अच्छा-बुरा, ओछा और महानतम् भी सो माँ के बारे में कसीदे कढ़े गए और पिता किनारे पर हो गए।

सुपर हीरो

मनोवैज्ञानिक फ्राइड ने हर रिश्ते को स्त्री-पुरुष के दृष्टिकोण से देखा और माना कि भावनात्मक रूप से बेटे माँ के करीब होते हैं और बेटियाँ पिता के। बेटियाँ शादी करके गईं तो उन्होंने पति में सबसे पहले अपने पिता को ही तलाशा। बचपन से युवावस्था तक उन्होंने जिस पिता के रूप में जीवन के पहले पुरुष को बहुत करीब से देखा था वह उस समय युवावस्था से अधेड़ आयु को प्राप्त कर रहा था और बेटियों के लिए लगभग सुपर हीरो-सा था। शादी के बाद युवा पति बड़ी आसानी से पिता की उस छवि में बैठ गया और बेटियाँ हमेशा उससे अपने पिता की तुलना करते हुए कभी संतुष्ट तो कभी हताश होती रहीं।

बेटों की भी शादियाँ हुईं। लेकिन यहाँ गणित उल्टा पड़ गया। बेटे जब तक समझने की दस-बारह साल की उम्र में आए थे, तब तक माँ शादी और घर-गृहस्थी में सध गई थी, खाना बनाने में ख़राब भी रही हो तो निपुणता की ओर बढ़ चली थी, माँ आदर्श थी। ऐसे में शादी के तुरंत बाद उन्होंने पत्नी की तुलना में माँ को अधिक श्रेष्ठ पाया क्योंकि पत्नी तुरंत तो सुगृहिणी नहीं हो सकती थी। कभी दाल में नमक ज़्यादा पड़ा, कभी रोटी बनाने का आलस आया और बेटों ने तंज कसा ‘माँ बहुत अच्छा खाना बनाती है’। ऐसे माँ का पलड़ा अपने-आप भारी रहा।

बाज़ार जानता है

इन सबसे ऊपर मार्केटिंग का कारण तो है ही। बाज़ार जानता है स्त्री के नाम पर बिकने वाली हर चीज़ अधिक बिकती है। इस गणित ने स्त्रियों को खूब छला और पुरुषों को भी अपने जाल में ले लिया। सोशल मीडिया पर ‘फ़ादर्स डे’ के संदेशों को देखिएगा उसमें बेटियाँ ही अपने पिता को अधिक याद करती दिखेंगी। ये संदेश बनाने और उन्हें प्रसारित करने वाले मार्केटिंग के हथकंडे जानते और उन्हें भुनाते भी हैं।

याद कीजिए ‘बाबुल की दुआएँ लेती जा’ गाने वाले बलराज साहनी का दीन-हीन चेहरा और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’ में अमरीश पुरी का रौबदार पिता का चेहरा। अमेरिका में रहने वाला पिता अपनी बेटियों को परंपरागत भारतीय और वह भी गाँव-कस्बों, देहातों में रहने वाली भारतीय लड़की की तरह देखना चाहता है, यह बात कितनी विसंगतिपूर्ण लगती है लेकिन फ़िल्म तो कीर्तिमान रच गई।

हैप्पी फ़ादर्स डे

अब हमारे आसपास के पिताओं की ओर देखिए, युवा पिताओं को देखिए, न तो वे दीन-हीन हैं, न वे रौबदार हैं। वे बच्चों के ‘बड्डी’ हैं और जैसे ‘मदर्स डे’ या ‘वूमन्स डे’ पर केक लेकर आए थे वैसे ही वे खुद ही ‘फ़ादर्स डे’ पर केक ला रहे हैं, बच्चों के साथ मिलकर बलून फुला रहे हैं और खुद ही ‘चियर्स’ कर रहे हैं और अपने पिता को भी फ़ोन पर या आमने-सामने ‘हैप्पी फ़ादर्स डे’ कह अपने आप को सेलिब्रेट कर रहे हैं, ये हैं असली पिता जो आपके महानायक पिता की छवि से अलग और शायद बेहतर ‘पिता’, ‘पापा’, ‘पप्पा’ या ‘डैड’ है।