हम ‘ई’ से ईमान रखने नहीं, बेचने लगे

हम ‘ई’ से ईमान रखने नहीं, बेचने लगे

बचपन में याद करते थे ई, ईख की। बाद के वर्षों में उसे ईख कहना कब बंद हुआ, याद नहीं। ईख का सरल शब्द गन्ना वाक्प्रचार में आ गया। गन्ना कहना देहाती लगा तो सभ्रांत कहलाने की इच्छा ने उसे शुगर केन बना दिया, फिर उस केन से केन भी खो गया और शुगर लेवल चैक करते रहने का ज़माना आ गया।

ईख क्या गायब हुई!

ईख बताती थी कि गाँठ हो तब भी वह ईख की तरह मीठी हो, शुगर केन कहता डंडे जैसे तने भी रहो तब भी खोजने वाले तुममें मिठास पा जाएँ लेकिन ई की ईख क्या गायब हुई, सारी मिठास ही चली गई। ई की ईर्ष्या ने कब दामन पकड़ा यह पता ही नहीं चला।

पाप और अपराध की भावना को जन्म देने वाले शरीर की ई से शुरू होती ईडिपस ग्रंथि मुखर होकर पूरे समाज पर हावी हो गई, जबकि इस ग्रंथि का कार्य हमारे नैतिक, धार्मिक और सामाजिक नियमों तथा प्रतिबंधों की पृष्ठभूमि में कार्यरत होना था। हम दुनिया में रहते हुए एक-दूसरे से जैसे इनामी मुक्केबाजी करने लगे। हमारे भीतर ईप्सा इतनी बढ़ती गई कि हमने ईमान रखना नहीं, ईमान बेचना शुरू कर दिया

इसके बाद हमें किसी ने भी कुछ कहा तो हमने जैसे कानों में इयर-बड डाल लिए, कि सामने वाला बोलता रहे, हम न सुनेंगे। पूरी धरती ईरान-ईराक की तरह बारूदों से पट गई हो शायद!

ई-संसाधन

हमने ई लर्निंग पर ज़ोर दिया, ई-बुक्स, ई-पत्रिकाएँ पढीं, ई-रीडर तक हमारे सामने थे। ई-सूचना संसाधन की पूरी दुनिया हमारे सामने खुल गई। हमने ई-स्रोतों का सहारा लिया। ई- साक्षरता आई तो ई- सरकार बनी और उससे ई -शासन होने लगा। ई-कार्ड दिखाते हुए ई-टिकट लेने से लेकर ई-वॉलेट से ई-भुगतान करने के रास्ते खोजे गए।

पूरी दुनिया को ई-मेल किए और अपना ई-व्यवसाय बढ़ाने के लिए ई-कॉमर्स का सहारा लिया। लेकिन ऐसा लगा जैसे ई से हमारा ईमान कहीं खो-सा गया। हमने न तो प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग ईमानदारी से किया, न ही अन्य ईंधनों का

ईश्वरोपासना

हम ईंट-गारे की ऐसी दुनिया रचते चले गए, जिसमें ईश्वरी कार्य करने के लिए कोई कोना तक न था। भगवान् शिव की पत्नी का एक नाम ‘ईशनि’ जैसे हमारे शब्दकोष से जाता रहा वैसे ही हमें लगने लगा कि हम स्वयं ही सर्वशक्तिमान् हैं

कभी ईश-निंदा को सबसे बुरा माना जाता था लेकिन हमने इस तरह निंदा राग अलापना शुरू किया कि ईश-दूतों को भी क्या छोड़ते? जो इसके विरोध में आए हमने उनकी ईश्वरवादी व्यक्तिवाद कह अतिरेकी निंदा की। हम कैसे ईश्वरोन्मुख होते, जबकि हमने अपने लिए नई ‘ईशिका’ (तूलिका) तलाशी और ईशान में उगते सूरज पर अपने नाम की मुहर लगा देने का गुरेज़ करना चाहा हो। हमने ईश्वरोपासना को तज दिया।

ईद की भोली खुशी

हमने इतना ‘ईठना’ (ऐंठना) कहाँ से सीखा? रमज़ान के पूरे तीस रोज़े रखने के बाद आनी वाली ईद की वह भोली खुशी जो हामिद और उसकी बूढ़ी दादी अमीना के रिश्ते में थी, (संदर्भ- उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानी ईदगाह) वह कहाँ छूट गई?

ईस्टर के संदेश

हम ईस्टर (ईसा मसीह के पुनरुत्थान का दिन) तो मनाते रहे लेकिन हमने जैसे मान लिया कि सर्वसमभाव, दया आदि की बातें ई.पू. की बातें हैं। हमने ईसाइयों के बड़े दिन को भी बाज़ारवाद से जोड़ दिया और क्रिसमस एक पर्व भर न रहकर चमकते मॉल्स के लिए मार्केटिंग का साधन बन गया। कभी ईस्ट इंडिया कंपनी ने हम पर राज किया था आज यह बाज़ार हम पर राज कर रहा है।

ईसबगोल लेने से पाचन तंत्र सुधरता है पर यदि पूरे तंत्र-पूरी व्यवस्था को सुधारना हो तो समाज को क्या घोल पिलाया जाए, अब तो यह सोचना पड़ेगा।