फिर वही ‘ढाक के तीन पात’

फिर वही ‘ढाक के तीन पात’

कुछ वर्णों की अपनी पहचान होती है वैसा ही एक वर्ण है ‘ढ’। किसी को केवल ‘ढ’ कहने भर से कोई कितना भी ‘ढ’ हो तब भी इतना समझ लेता है कि उसे ‘ढ’ से ढोर कहा जा रहा है या ढप्पू या उसे ‘ढ’ ढक्कन का या ‘ढ’ ढपोरशंख कहा जा रहा है। वह इसे नासमझने का ढोंग नहीं कर सकता। ‘अपनी अपनी ढपली पर अपना अपना राग गाने’ का ढाँचा इसी ‘ढ’ का बनाया हुआ है। यह ढाँचा इस तरह बना है कि जैसा चाहे ढल जाए और ज़रा ढील दी तो माटी के ढेले की तरह लुढ़क जाएगा।

‘ढाई आखर’

‘ढ’ हिंदी वर्णमाला का चौदहवाँ व्ंयजन है और ट वर्ग का चौथा वर्ण। यह मूर्धन्य, स्पर्श,घोष और महाप्राण ध्वनि है लेकिन ‘ढाई आखर’ पढ़ने वालों को यह अर्धाली में ही ‘ढ’ और ‘ढ़’ का अंतर समझाकर ढाढ़स बढ़ाता है। इसे पढ़कर वह बढ़ जाता है और इसके गाढ़े रंग से गढ़ जाता है। ढाबे पर कढ़ाई में डालने पर उसके आकार में ढल जाता है, कभी ढोकले सा नर्म तो कभी ढाल सा तन जाता है। सुतली बटने के लिए जिस लकड़ी के औज़ार का इस्तेमाल किया जाता है वह ढेरा होता है लेकिन लोग डेरे और ढेरे में गड़बड़ कर देते हैं। ज़रा-सा वर्ण इधर-उधर हो जाने पर कैसे अर्थ बदल जाता है, यह जो ढूँढ नहीं पाता उसके लिए तो यहीं कहेंगे कि फिर वही ‘ढाक के तीन पात’।

नज़र का ढिठोना

इसे ढिलाई बिल्कुल नहीं पसंद। ढीले-ढाले किसी को अपना काम दूसरे पर ढकेलने की आदत हो तो यह ढिंढोरची को बुलवा ढिंढोरा पिटवाकर ढमढम बजा सबको ढिग (समीप) बुलाता है। यदि ढोल-ढमाका न मिला तो ढोलकी या ढोलक और ढफ़ बजवा देता है। किसी का कुछ ढाँपकर ढंग से ढकना लगा ढाँककर कुछ रखा हो तो ढिबरी (चिराग) जला ढँका-छिपा दिखा देता है क्योंकि इसे व्यर्थ के ढकोसले का ढब बिल्कुल पसंद नहीं वैसे ही जैसे किसी को कूड़े-कचरे का ढेर पसंद नहीं होता। ढेर सारे पैसे का ढेर लगे तो बात अलग है पर उस दम पर यदि कोई ढीठ ढेरी (तोंद) निकाल अपनी ढिठाई दिखाता है तो यह उसकी गाड़ी ऐसी ढलान पर लगा देता है कि ढलावदार ढलैया से सीधे ढलुवा धरातल पर जा ढेर हो जाए और मिट्टी का ढेला भी उसे न मिले। फिर उसकी ढैया कैसे पार हो? वैसे कोई भला हो तो यह उसे नज़र का ढिठोना भी लगा देता है।

‘ढब की बात’

आम बोलचाल में जब भी ठीक शब्द को अभिव्यक्त किया जाता है तो ‘ढंग का होना’ कहा जाता है। यदि अनुस्वार हटाकर देखें तो ‘ढग’ शब्द सामने आएगा। ढग के माने क्या? तो ‘ढग निकालना’ मतलब कोई रास्ता या युक्ति निकालना और ‘ढग पर चढ़ना’ मतलब अपने स्वार्थ के अनुकूल कर लेना, अब यदि केवल अनुस्वार लगा दें तो और ‘ढंग पर लाना’ कहें तो उसके मानी होंगे अपने काम के योग्य बना लेना। ‘ढंग बरतना’ से आशय दिखावटी बर्ताव करना हो जाएगा तो ‘ढंग से बरतना’ मतलब मितव्ययिता होगी, देखा केवल एक शब्द के घटने-बढ़ने से कैसा अर्थ बदल गया। ‘ढचर बाँधना’ मतलब आंडबर फैलाना और ‘ढढ्ढू का पाड़ा हो जाना’ मतलब उम्र बढ़ जाने पर भी वैसा शऊर न आ पाना।

इसी तरह ‘ढब’ से भी कितनी ही बातें निकलती हैं जैसे ‘ढब आना’ मतलब किसी काम का तरीका पता चलना, ‘ढब की बात’ मतलब मौके की बात कहना, ‘ढब डालना’ मतलब अच्छी या बुरी आदत डालना, ‘ढब पर चढ़ना’ मतलब काबू में आना और ज़रा फेरफार कर ‘ढब पर चढ़ाना’ कहा तो उसका अर्थ हो जाएगा इस अनुकूल बनाना कि अपना काम निकल आए और यदि ‘ढ’ को पढ़ते-पढ़ते आपको ढाँस (खाँसी) लग गई हो तो इसे गुनगुनाते हुए रुक सकते हैं कि – ‘ढल गया दिन हो गई शाम’।