डाकिया डाक लाया

डाकिया डाक लाया

‘जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा...वो भारत देश है मेरा’...देखिए गीत में डाल कहा है डाली या डलिया नहीं। डाल और डाली में अंतर है, डंडा और डंडी में अंतर है और डाक और डाका में तो बहुत बड़ा अंतर है। डकैत डाका डालता है और डाकिया डाक लाता है। भले ही अब डाकिया डाक लाया वाली बात पुरानी पड़ गई हो लेकिन गाँव-कस्बों में अभी भी डॉक्टर को डाक साब कहकर बुलाया जाता है और डाक साब शब्द का डाक शब्द से वैसे कोई लेना-देना नहीं है।

तीसरा व्यंजन

डमरूपाणि धारण करने वाले शिवजी को याद करके यदि हम शुरू करें तो वर्णमाला में टवर्ग के इस तीसरे व्यंजन को भाषाविज्ञान की दृष्टि से मूर्धन्य, स्पर्श, घोष तथा अल्पप्राण ध्वनि का कहा है। थोड़ा भेद 'ड़' का है, जिससे शब्द शुरू तो नहीं होते, ख़त्म ज़रूर होते हैं जैसे पेड़, जड़, छोड़, लड़, मोड़, मुड़...एक और बात गौर कीजिएगा ड का हलंत् रूप मध्य में आता है, प्रारंभ या अंत में नहीं जैसे खड्ग। आप इस भारी भरकम ज्ञान से डर गए क्या? डिब्बे में से डोसा खाकर पेट भर जाने पर जैसे डकार लेते हैं, वैसे ही इस ज्ञान चर्चा पर भी डकार लेते हैं। ‘डकार जाना’ और ‘डकार तक न लेना’ के भेद पर सोचिए और ‘ड’ की डगरी पर चल पड़िए। देखिए कितने ही शब्द डेरा डाल बैठे हैं।

डुप्लीकेट भाषा

जी, जी माना अब सारे डेटा और डॉक्युमेंट्स को डिवाइस की ड्राइव में सेव करने का ज़माना आ गया है, लेकिन डायरी की हार्ड डिस्क में बसी यादें भला डसना कब छोड़ती हैं! तब तो छोरा-छोरी को डोकरा-डोकरी कहते थे और डेयरी में से कुछ लाना भी उत्सव हो जाता है। अब डोनेशन देने पर ही स्कूल में पढ़ सकने वालों को छोरा-छोरी की डेफिनीशन बतानी हो तो लड़का-लड़की कह सकते हैं। पर ऐसे तो यह डुप्लीकेट भाषा हो जाएगी न! भाषा में डुबकी लगानी हो तो उसके प्रति डर को छोड़ना होगा।

डैड और डेंटिस्ट, डीज़ल और डिज़ाइनर ड्रैस जैसे इतने अंग्रेज़ी शब्द हिंदी में डाल दिए जाते हैं कि हिंदी की डुगडुगी कैसे बजाए समझ नहीं आता। कभी डेढ़ कोस पर बोली बदल जाती थी और डोगरी जैसी बोलियाँ भी समृद्ध हुआ करती थीं। अब अंग्रेज़ी की डोर में सब बँधते जा रहे हैं। एक ही भाषा की डींग मत हाँकिए। हिंदी डिबिया में बंद हो रही है और अंग्रेज़ी के सॉफ़्ट-हार्ड ड्रिंक्स का दौर चल पड़ा है। तो क्या हिंदी की लुटिया डूब गई है? यह डाँवाडोल स्थिति क्यों है?

डील और डील-डौल

परहेज़ तो किसी भी भाषा से नहीं है, बस एक भाषा का ड्रम बजे और दूसरी भाषा का डांडिया न हो, उसका कुछ डाउनलोड ही न हो और वो डगमगाए, उसमें कोई डील ही न हो तो डाँट-डपट करने का मन करता है। लेकिन ज़माना ऐसा आ गया है कि हिंदी में डील-डौल कम लगता है। मसौदा कहो तो किसी को समझ नहीं आता और ड्राफ़्ट कहते ही डॉन बन जाने सा रौब आ जाता है। हर भाषा में डायमंड है और किसी भाषा में बोलने से डायरिया नहीं होना चाहिए न! अंग्रेज़ी में जानने के लिए एक और हिंदी में जानने के लिए दो डायल करें, वाले डायलॉग केवल हिंदी दिवस पर ही क्यों प्रसारित हों? किसी भाषा के प्रति डाह नहीं है पर किसी से पता पूछिए, वह बताएगा डायरेक्ट वहाँ चले जाइए।

डेटाबेस

डामर की सड़क पर चलते-चलते ऐसा डेटाबेस बनने लगा है कि सिनेमा का निर्देशक अब डायरेक्टर हो गया है। कोई डीजे पर डांस कर रहा है तो कोई डाइट तो कोई डटकर डायबिटीज़ का मुकाबला कर रहा है। कोई ड्राइवर हो तो वह अप-डाउन करता है, कोई डबल ड्यूटी करता है तो कोई ड्राइंग करता है, कोई डेमो दिखाता है, कोई डोरस्टेप पर डिलीवरी देने आता है, कोई डैम पर ले जाता है, कोई घर पर ड्रॉप कर जाता है, छोटा बच्चा डबलरोटी नहीं समझता पर डक को पहचानता है, लगता है जैसे हिंदी की डोली ही उठ गई हो। ये हमारे डीएनए में कैसा डंक लग गया है? आँखें डबडबा जाती हैं, हमारी भाषा की डैथ का यह हैवी डोज़ है, जो उतर नहीं रहा है। इसे डीकोड करना होगा

मिश्री की डली

डिक्शनरी तलाशते हुए हिंदी के शब्दों को खोजना होगा। केवल डिग्री लेकर कुछ नहीं होगा। यह डिबेट करने की बात नहीं है। डिज़िटल युग में इसे डिज़ॉल्व करना होगा जैसे डॉलर के सामने रुपए को भी मजबूत करना होगा। डिस्क्रिप्शन करते हुए मिश्री की डली-सी एक डली की तरह हमारी भाषा का डोमेन भी सबके मुँह लग जाए तो कितना अच्छा हो फिर भाषा की डमी नहीं असली भाषा उठ खड़ी होगी, जो किसी भी दूसरी भाषा के डस्टर से पोंछी नहीं जा सकेगी। डायनासोर लुप्त हुए थे, कोई भाषा लुप्त नहीं होनी चाहिए। डिस्पेंसरी या डिपार्टमेंट में जाइए, डिनर पर बुलाइए, डिश डिस्ट्रीब्यूट कीजिए लेकिन डोंगे में डोलची से देकर तो देखिए। काली रात में अपनी भाषा को नज़र न लगे इसलिए डोमेस्टिक स्तर पर ही सही पर काला डिठौना भी लगे हाथ लगा दीजिए। डॉल्फ़िन की तरह ऊँची छलाँग इसे भी लगाने दीजिए।