छड़ी बाजे छमाछम

छड़ी बाजे छमाछम

बारहखड़ी- छ, छा, छि, छी, छु, छू छृ, छे, छै, छो, छॉ, छौ, छँ, छं, छः

छ, छत का, छ छज्जे का, आज की पीढ़ी को छज्जा पता भी होगा या नहीं, क्या पता! ख़ैर लेकिन यदि इसमें आ की मात्रा लगा दी जाए तो छाता बन जाता है, छोटी इ की मात्रा जुड़ जाए तो हर कोई कह देता है छिः और यदि बड़ी ई की मात्रा लग जाए तो छींटाकशी होने लगती है। उ की मात्रा लगा दीजिए छुट्टी मिल जाएगी और ऊ लगने से छूट।

ए की मात्रा छेड़छाड़ दिखा देगी तो ऐ की मात्रा उसी छेड़छाड़ में छैल-छबीले के दर्शन करा देगी यदि ओ लग जाएगा तो छोड़ना पड़ेगा और औ की मात्रा होने पर न केवल भोजन में तड़का लगेगा बल्कि किसी बात में भी छौंक लग जाएगा।

छककर तृप्त

चवर्ग के इस दूसरे व्यंजन के पहले यदि च लग जाए तो च्छ हो जाएगा जैसे आप अभी कह सकते हैं- अच्छा! और यदि इससे पहले श लग जाए तो वह श्छ हो जाएगा एकदम ऐसा जैसे हो यह निश्छल। इसे छंदबद्ध करके देखिए, अपना अलग ही आनंद आएगा, उस रस से आप छककर तृप्त होना चाहेंगे।

छ का यह छकड़ा है, जिस पर कभी चढ़कर छजली से छनकर आती रोशनी को देखा होगा, जिसने यह छटा नहीं देखी वह तो छटपटाकर रह गया होगा। इस छ की छक्केबाजी भी ऐसी है कि कभी-कभी छठी का दूध याद दिला देती है तो कभी-कभी किसी से छत्तीस का बैर करवा देती है। अपनी छतरी तानकर छत्रक बने रहे तो इसकी छत्रछाया को महसूस नहीं किया जा सकता है।

हर कोई तो छत्रपाल नहीं होता है, इसलिए वैसा छद्मवेष धारण करना भी ग़लत है। छपास की प्रवृत्ति में कई बार छल-कपट से ऐसी झूठी ख़बरें छपवा ली जाती है लेकिन कभी किसी छमाही में ये झूठ भी छलछलाकर छलक ही जाता है। सत्य ऐसे छपाक् से बाहर आता है। फिर कोई छरहरा भी हो तब भी वह किसी के छर्रों-छर्रियों से नहीं डरता, सत्य की छलनी में ऐसी ताकत होती है कि वह छलाँग लगवा देती है।

थोड़ी छानबीन में ही झूठ का छलावा, झूठ के छल्ले ओझल हो जाते हैं। सत्य छाती ठोककर खड़ा होता है। वो झूठ को छाँट देता है। छाछ में से पानी निकल जाने पर जैसे नवनीत रह जाता है वैसे ही सच के बारे में कहा जा सकता है। यह वही माखन है जिसे छींके पर रखा जाता था। लेकिन देखिए कितनी मिठास है, माखन चोरी पर कोई छावनी में रिपोर्ट दर्ज कराने नहीं जाता।

छायालोक

इसे और आसानी से समझना हो तो ऐसे देखिए कि सभी छात्रों को छात्रवृत्ति नहीं मिलती, यह केवल उन्हीं को मिलती है जो घर पर भी छात्रावास की तरह अनुशासन में रहते हैं और विद्यालय में छात्राध्यापक की बात किताबों पर छाए रहते हैं। वे गुरू की छाया की तरह उनके साथ चलते हैं और छापेखाने की छाप की तरह भले ही न हों लेकिन गुरू के छायांकन होते हैं।

जैसे किसी एकलव्य ने गुरू की प्रतिमा को देख सीखा था वैसे गुरू का छायाचित्र मन में हो तो पैरों में पड़े छाले भी छालित नहीं करते क्योंकि वे जानते हैं- छड़ी बाजे छमाछम...। छिछली बातों के छायालोक से खुद-ब-खुद दूर हो सकते हैं। दुनिया से छिपकर रहने की फिर ज़रूरत नहीं होती। प्रारब्ध की छिपा-छाई का खेल छिद्रित हो जाता है और छिपा सूर्य निकल आता है।

छदाम भर

यह छ की छीना-झपटी है, तो छींटाकशी भी। जाने कहाँ से इसके पास छुआछूत जैसा शब्द भी है, जिससे छुटकारा पाने की ज़रूरत है, तो इसकी छदाम भर की छोटी-सी बात से सब छितर-बितर हो जाता है क्योंकि इसके पास छिन्न-भिन्न करता छिनाल जैसा शब्द भी है तो टापती छपकलियाँ भी। ज़रा-सी छींक आ जाने पर शकुन-अपशकुन के गणित हैं तो दुराव-छिपाव भी।

कोई छिछोरा है तो छुटभैया नेता भी। जब कोई छुटकी छुहारे-सी छुवन छिपाती छुपते-छिपाती जाती है तो कइयों के कलेजे पर छुरी चल जाती है और छेड़खानी से झगड़े हो जाएँ तो बड़ों-बड़ों को उसे छुड़वाने आना पड़ता है, छप्पन छुरी चल सकती है। यह व्यवहार का छोटापन है जो हर रिश्ते को केवल छोकरा-छोकरी के रूप में ही देखता है।

छोटे परदे ने भी बहुत कुछ बिगाड़ा है। चलिए छोड़िए इन बातों को। जैसे छोले के साथ भटूरा होता है, वैसे ही छ के साथ दोनों तरह के शब्द आते हैं। छ के छद्मभाव से छद्मयुद्ध हो सकता है। हमें तो छ की छवि के छप-छप का आनंद लेना चाहिए...छप्पन भोग का प्रसाद भी तो इसी छ से है।

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छोड़ो न, बढ़ो आगे...