‘च’ का चरमोत्कर्ष

‘च’ का चरमोत्कर्ष

‘चोबेजी भाजी बेचो’ को उल्टा-सीधा पढ़िए या बताइए ‘चंदू के चाचा ने, चंदू की चाची को, चाँदनी चौक में, चाँदनी रात में, चाँदी के चम्मच से चटनी चटाई’…हिंदी का यह टंग ट्विस्टर बोलते समय कितनी बार आपकी ज़ुबान लड़खड़ाई थी, क्या आपको याद है? या मैथिलीशरण गुप्त की वह प्रसिद्ध कविता जिसमें ‘चारु चँद्र की चंचल किरणें’…आती हैं और उसके बाद एक प्रश्न की यह कौन-सा अलंकार है? और आप जवाब देते थे अनुप्रास अलंकार, क्या आपको याद है?

चौंकिए या चकराइए नहीं, आपकी स्मरण शक्ति की परीक्षा नहीं ली जा रही, चूँकि चटपट ‘च’ आ गया तो चंगा लगा बीती बातें याद करना। जैसे वो आँखें चौंधिया देता चकमक का पत्थर, वो बाल पत्रिका चंपक, चंदा मामा, वो चंद्रकांता धारावाहिक, वो चंगेज़ खाँ…चपड़-चपड़ करती-सी कितनी बातें निकल आईं।

मन चाँदी-चाँदी

चंट चंपू बचपन में शरारती था और चुटकी बम से खेला करता था। चॉकलेट खाने की इच्छा और चाकू से केक काटने वाले दिन बीतने लगे। चुटकी बजती-सी उम्र बढ़ने लगी, मन ‘चाँदी-चाँदी’ होने लगा, तो चंदेरी दुनिया से ‘च’ की चमकीली चकाचौंध लिए ‘चौदहवीं का चाँद हो’ या ‘चंदन-सा बदन, चंचल चितवन’ करता गीत आ गया। चहकने का चस्का चहारदीवारी चाहने लगा। चहलकदमी करते मन के हाथों चहल-पहल के उत्सव का चषक लग गया। सब कुछ चाक-चौबंद किया गया। एक-दूसरे की चापलूसी भी की और चाटुकारिता भी।

घर की चाबियाँ साझा हुईं लेकिन चश्मेबद्दूर के ‘चाँद सा रोशन चेहरा’ का चंद्रिकोत्सव चकनाचूर हुआ। ‘चाहूँगा मैं तुझे साँझ-सवेरे’ की बात चिक-चिक हो गई। मानो चक्रवात आ गया। चाँद-चकोर, चकवा-चकवी अचानक चालाक, चालबाज़ लगने लगे। वे चंडीपति और चंडकाली हो गए और हर बात चकल्लस। चंगुल से बचने, चकमा देकर चंपत हो चंडीगढ़ चले जाने के विचार आने लगे। वे एक-दूसरे पर चिंघाड़ने लगे। ज़रा-सी चिंगारी आग बन गई। जिसके हाथों से चाशनी बड़े चाव से खाई जाती थी, सब चट्टा-बट्टा हो जाता था, उसकी चक्षुओं में अश्रु आए और ‘चक्का लाओ तो श्रीखंड बने’ जैसी पहेलियों में चक्करदार बातें होने लगीं। चिटकनी लग गई। चटोरापन चोटिल हो गया।

चकित करता चक्र

चारों ओर ‘चालक-मालक’ का खेल चल पड़ा। जीवन की चक्की, चक्रव्यूह हो गई और चकित करता चक्र चाबुक मारता-सा चलता चला गया। चचा ने कहा था कि ‘शादी का लड्डू’ जिसने चखा वो भी पछताया, जिसने नहीं चखा वह भी। चूड़ियाँ चटक गईं, चटकीला रंग चटख गया, एक-दूसरे पर चढ़ाई होने लगी और रिश्ते में चक्रवात आ गया, रिश्ता चट्टान बन गया। चरम सीमा तक पहुँचे चरमराते संबंधों को यही ‘च’ चरमोत्कर्ष तक भी ले जाता है। इसके चम्पई सुख को यकायक नहीं समझा जा सकता।

एक चतुर्थांश बीत जाने तक चतुराई की चतुरता नहीं आती। इसकी चपेट में आने पर जब चपत लगती है तब कई चतुर्मास चप्पल घिसने पर समझ आता है कि चतुष्पद की तरह नहीं जीना बल्कि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुष्कोण को समझना है। ‘चप्पा-चप्पा चरखा चले’ गीत-सा समझ आता है कि जीवन चना चबेना नहीं है, ये तो ‘चदरिया झीनी रे झीनी’ है याकि हर घर में एक-सा चौका-चूल्हा जलता है, एक-सी चपाती बनती है।

यानी ‘हर चमकीली चीज़ सोना नहीं होती’ और चंदन के वृक्ष पर भुजंग बैठता है, चमगादड़ के साए सबके जीवन में कभी न कभी मंडराते ही हैं और ‘चील-चील चिल्ला के कजरी’ नहीं सुनाई जा सकती। चपरासी हो या अफ़सर चमड़ी सबकी एक समान होती है इसलिए किसी को चमार कह दुत्कारा नहीं जा सकता, अब तो यह कानूनन अपराध भी है, खैर। उन्हें अदब से चर्मकार कहिए, अपना भी चर्मशोधन कीजिए।

चलायमान चलचित्र

चमत्कृत करता ‘च’, चमेली की गंध बिखेरता है। ‘च’ के चरणों में बैठ चरण पादुका सिर नवाने पर चरण सेवा का आनंद, चरण स्पर्श का महत्व समझ आता है। चरागाहों में चरवाहों के साथ चर्चा करने पर लगता है, केवल चरने या चरते रहने या चर्चित होने से नहीं बल्कि चरित्रवान् होने से किसी चक्रवर्ती-सा जीवन चरितार्थ होता है। चालीस-चवालीस की उम्र तक आते-आते चश्मे का नंबर बढ़ता है और पता चलता है कि जो जिया उसका मूल्य तो एकदम चलताऊ था, याकि चिल्लर जैसा चवन्नी मात्र भी नहीं था।

चक्रवृद्धि ब्याज का गणित समझते रहे पर जब चला-चली की बेला आती है तो जीवन का चलता-फिरता चलचित्र चलायमान हो जाता है। चिकने रास्ते से फिसलते हुए चिता पर पहुँचने की बारी आने पर चिंतनशील चिंतकों की तरह चिंतन शुरू होता है लेकिन वो तब केवल चिंता बन जाता है। चिंपाजि की तरह उछलकूद में जीवन को चिंदी समझना भूल लगने लगता है।

चिट्ठी-पत्री

चुनौतियाँ हमें चुभती थीं, हम चुहलबाजी करते रहे जैसे चुल्लू भर पानी भी हमारे लिए कम था। हम चूँ-चपड़ में लगे रहे। अब लगता है कोई चिकित्सक चिकोटी काट कह दे कि यह सब झूठ है। चटकारे लेता चिवड़ा कोई खिला दे, पुरानी चिट्ठी-पत्री बाँच दे, जिसमें चिड़ा-चिड़िया की बातें थीं। पर कोई भी चिरंजीव नहीं है, चिरंतन चिरकाल तक कुछ नहीं रहता, यह जान चिड़चिड़ाहट बढ़ती है और खुद को चिड़ियाघर में बंद चीते या चितकबरे की तरह पाते हैं। चित्त कहीं नहीं लगता। हम अपने जीवन के चित्रकार हो सकते थे लेकिन चित्रगुप्त के पास चार्जशीट पढ़ी जाती है तो सब चिथड़े-चिथड़े हो जाता है जिन्हें चिमटे से अलग नहीं किया जा सकता।

चूड़ामणि की खोज

काश कि हम चिन्मय हो जाते! पर हमने चीखने-चिल्लाने में उम्र गुज़ार दी। चीनी के चिह्नों को खोजती चींटी की तरह जीवन गुज़ार दिया। चीकू का स्वाद चखना था, हम चीर-फाड़ करते रह गए। चुगली करते रहे, चुटिया खींचते रहे, ‘लुटिया डुबोते’ रहे। हम चील हो सकते थे और ऊँची उड़ान भर लेते, हम चुंबक हो सकते थे और चुनिंदा बातें चुन लेते। चुनाँचे हम चुनरी, चुन्नी और चुंबनों में उलझे रहे।

चुनाव हमें करना था, हम घी चुपड़ी रोटी के लालच में चुप्पी साधे बैठे रहे। जीने की चुंगी चुकाते रहे। चुस्त-दुरुस्त रहते, चौकस रहते तो जीवन की ऐसी चुस्की पीते जिसे हमसे कोई चुरा नहीं सकता था। चें-चें न कर, चेतना युक्त जीते तो चूड़ामणि की खोज आसान हो जाती। हमने किसी को गुरू बना, उसका चेला-चेली हो जाने की चेष्टा भी नहीं की।

चैनलाइज़

हम चेहरा देख चेतावनी देते रहे और चोटें खाते रहे। आइए नकली चोगा उतार फेंके। चैनलों की दुनिया से निकल अपने जीवन को चैनलाइज़ करें। अपने जीवन के खुद ही चौकीदार बनें और चौकसी करें, चौकन्ने रहे कि हम क्या, क्यों कर रहे हैं? चौखट से बाहर निकलें, चौकोन की चौकोर को चौड़ा करें। ये जो चौरंगी चौपड़ बिछी है उसे चौबीसवें साल में ही समझ में आ जाए और चलिए अपने जीवन के चौधरी हम खुद बन जाए।