क्या हम तैयार हैं?

क्या हम तैयार हैं?

आपको याद होगा कभी भारत की औसत आयु 18 वर्ष थी और हम बहुत खुश हुए थे कि हम युवा राष्ट्र हैं। अब भारत की औसत आयु 24 वर्ष हो गई है। मतलब हम उम्र के लिहाज़ से कुछ बढ़ गए हैं। गांधीनगर स्थित भारतीय लोक स्वास्थ्य संस्थान के श्रीनिवास गोली के मुताबिक भारत में 1990 में औसत आयु 59.6 वर्ष थी, जो 2019 में बढ़कर 70.8 साल हो गई है

यह एक दूसरा आँकड़ा है। पहला आँकड़ा देश की औसत आयु बताता है मतलब देश में औसतन 24 वर्ष के युवाओं की संख्या सर्वाधिक है...दूसरा आँकड़ा देश की आयु सीमा मतलब कितनी उम्र तक अमूमन लोग जीने लगे हैं वह बताता है।

एक तीसरा आँकड़ा और चौंकाने वाला है कि वर्ष 2050 तक हर पाँचवाँ भारतीय 60 साल से अधिक की उम्र का होगा और वर्ष 2050 तक 80 साल से अधिक उम्र के व्यक्तियों की संख्या 0.9 फीसदी से बढ़कर 2.8 फीसदी हो जाएगी। इन आँकड़ों को देख ख़ुश तो हुआ जा सकता है कि भारत में लोग लंबी आयु जीने लगेंगे लेकिन विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या हम उन स्थितियों के लिए तैयार हैं जब बुजुर्गों की संख्या ज़्यादा होगी।

हमारा घर-परिसर

न केवल उनके स्वास्थ्य पर अधिक खर्च करना होगा बल्कि उनके हिसाब से तमाम सुविधाएँ घर से लेकर सार्वजनिक स्थलों तक में विकसित करनी होगी। क्या हमारे मकान उस तरह से बन रहे हैं जिन्हें बढ़ती उम्र को ध्यान में रखकर बनाया जा रहा हो। चिकनी और ग्लेज़्ड टाइल्स पर फिसलने की आशंका..यदि कहीं पानी गिर जाए तो इन चमकदार टाइल्स की चौंध में वह कैसे दिखे..यह समस्या। बाथरूम में वे स्लिप न हो जाएँ इसलिए वहाँ की फ़्लोरिंग कैसी हो...इस पर ध्यान...उन्हें यदि वहाँ सहारे की ज़रूरत हो तो हैंड होल्डिंग लगे हैं या नहीं...जैसी कितनी ही छोटी-छोटी बातें हैं...जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

वे जिस परिसर में रहते हैं वहाँ या सार्वजनिक स्थानों पर नीचे-ऊपर आने-जाने के लिए रैंप की सुविधा, वहाँ रेलिंग की व्यवस्था, लिफ्ट के दरवाज़ों की गति जैसी कितनी ही बातें हैं जिन पर ध्यान देना होगा। वृद्ध समाजों में लंबी अवधि तक देखभाल की माँग को लेकर हम कितने तैयार हैं?

बूढ़ा होना

जीव विज्ञान में, ‘बूढ़ा होना’, उम्र बढ़ने की दशा या प्रक्रिया है। लेकिन समाज पर इसके गहरे जटिल प्रभाव पड़ते हैं।

हम ही नहीं पूरी दुनिया बूढ़ी हो रही है। पर चिंता यह भी है कि बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। जापान की घटती आबादी इस सच्चाई का झरोखा है। जब सात-आठ भाई-बहन होते थे तो बूढ़े माँ-बाप को सँभालने की कोई समस्या ही नहीं थी। तब जैसे घर-परिवार में बच्चे सामूहिक दायित्व की तरह पल जाते थे वैसे ही बुजुर्ग भी सामूहिक उत्तरदायित्व की तरह होते थे। उनके प्रति उत्तरदायित्व का भाव ही नहीं था, जब तक घर में बड़े-बूढ़े हैं तब तक उनका ही घर होता था और उनकी मर्जी से ही चलता था।

जैसे-जैसे महानगरों का विस्तार हुआ, एकल परिवारों में वृद्धि होती गई और उसका सीधा असर ‘बच्चे दो ही अच्छे’ का जुमला अमल में आया और उसके बाद ‘बच्चा एक ही अच्छा’ की भावना आगे बढ़कर ‘डिंक-डबल इनकम नो किड कपल' का चलन तक आ गया। जिनके बच्चे नहीं हैं उनके बुजुर्ग होने पर उनका क्या होगा...आज के दौर का विचारणीय प्रश्न बन गया।

बुजुर्ग आबादी

बुजुर्ग लोगों की आबादी के बारे में मतभेद रहे हैं। कभी-कभी इस आबादी का विभाजन युवा बुजुर्गों (65-74), प्रौढ़ बुजुर्गों (75-84) और अत्यधिक बूढ़े बुजुर्गों (85+) के बीच किया जाता है। लेकिन लंबी जीवन प्रत्याशा (मृत्यु दर में कमी) और कम जन्म दर वृद्धों की संख्या को बढ़ा रही है। इस बढ़ती संख्या और आने वाले कल के लिए हम कितने तैयार हैं? बुजुर्गों के शारीरिक ही नहीं, मानसिक-भावनात्मक स्वास्थ्य के प्रति हम कितने चिंतित हैं? यदि इन सवालों के समय रहते जवाब नहीं खोजे गए तो आज के युवा देखते-देखते कल बुजुर्ग हो जाएँगे और हमारे पास तब क्या इतना समय होगा कि हम उस वक्त आग लगने पर कुआँ खोद सकें?