‘भ’ से सबकी भली करेंगे राम

‘भ’ से सबकी भली करेंगे राम

कहिए सब भला चल रहा है न, किसी के यह पूछने पर आप कहते हैं हाँ सब भला चल रहा है। कोई भला-चंगा होता है, कोई भली-भली-सी एक लड़की होती है, जिसका भला-भला-सा एक नाम होता है, उसकी भली करेंगे राम। यह भला कब अच्छे का विकल्प बन गया यह तो नहीं पता लेकिन जहाँ-जहाँ अच्छा आता था वहाँ भर-भरकर भला-चंगा, भला आने लगा, कुछ अधिक सौम्य, कुछ अधिक मधुर।

उतने में ‘भ’ के भटजी ने भवें तरेरकर पूछा कहीं ऐसा तो नहीं है कि इसने अच्छे को भक्ष कर लिया या भगा दिया हो? न, न ऐसे न भड़काइए, आप तो यह समझाइए कि भूखे पेट कोई कैसे भजे गोपाला! ऐसा सुन भड़के भटजी ने भक!, कह भगा दिया और भागते-दौड़ते भवदीय ‘भ’ ने भाँप लिया कि दाल-भात की बात और आटे-दाल का भाव भलों-भलों को भयभीत कर जाता है। ऐसे में कुछ लोग तो भंडारों की शरण लेते हैं।

भिन्न भूमिका

भाभी-भोजाई में यह बात चल रही थी जिसे भतीजा सुन रहा था कि “भुखमरी का भूत भारत में कई सालों तक था और तब लोग उसके लिए भाग्य का रोना रोते थे”। उन दोनों को भनक भी नहीं लगी कि कब भतीजे ने ‘भवति भिक्षां देहि’ के देश में शुभं भव का संकल्प भी जगता है और भूतकाल को पीछे छोड़ सुनहरा भविष्य भावी जीवन का भंडार लगा जाता है, यह जोड़ते हुए वह संदेश भांजे को भेज दिया और उसने दूसरे भाई-भतीजों को।

पर भद्रे! इसके लिए केवल भक्ति और भरोसा होने से काम नहीं चलेगा आपकी कुछ कर गुज़रने की भिन्न भूमिका भी होनी चाहिए। तभी भभकती भीषणता का दाह भी कम हो सकता है और भद्रता बढ़ सकती है।

भीष्म प्रतिज्ञा

‘भ’ यही समझाना चाहता है कि भदेस (कुरूप) वही होता है जिसका मन भव्य न हो। मन के भटकाव को रोकने की बात भी ‘भ’ बताता है लेकिन मन का क्या है वह पल में भिवंडी तो पल में भोपाल पहुँच जाता है। वह जहाँ जाता है अपनी भजन मंडली बना लेता है। मन को रोकने के लिए तो भीष्म पितामह जैसी भीष्म प्रतिज्ञा ही करनी पड़ती है। लेकिन कोई भी संकल्प करना लोगों को भयंकर, भयानक लगता है। वे तो भाग्यश्री की फ़िल्म हिट हो जाने पर उसे भगवान् मानने लगते हैं तो दूसरे ही पल किसी और को।

वे भदई (भादौ मास की) की फसल तो है नहीं कि केवल उसी मौसम से जुड़े रहेंगे। उनका तो मौसम देख भाईचारा बदल जाता है। वे भेलपूरी की तरह सबके साथ हो लेते हैं कभी इसे भाई कहते हैं, कभी उसे भाईजान! मुंबई की तड़कती-भड़कती दुनिया में भाई शब्द सीधे चाकू भकोसने वाले से जुड़ा हो जाता है। उनसे उलझना भारी पड़ सकता है और फिर उन्हें भारी भुगतान तक करना पड़ सकता है या परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ता है। वे भगवत् गीता को पानी में भिगोकर भूल जाने का भरम पाले होते हैं।

भड़भूजे की भाड़

कहीं भूमिपूजन हुआ नहीं कि भूमिगत माफ़िया सक्रिय हो जाते हैं। कोई भगिनी किसी को भाई माफ़िक माने तो ठीक है लेकिन माफ़िया भाई भयावह है। यदि कोई भवदीय उनके संपर्क में आ जाए तो उसे भग्नमनोरथ लेकर ही लौटना पड़ता है क्योंकि भक्षक अपने मनोरथ साध्य करते हैं फिर भले ही भगदड़ मच जाए, वे भद्दे तरीके से बगुला भगत की तरह आँखें बंद कर लेते हैं।

यदि आप जान बचाकर भागना चाहे तो आपको भगौड़ा भी कह देंगे। उनकी बात को गीदड़ भभकी समझ मक्खियों की तरह वहीं रुक भनभनाते रहने पर भग्नावशेष बन जाने से तो लकुटी लेकर भागना अच्छा। उन हालातों में भजनोपदेश देने से कुछ हासिल नहीं होगा। कभी-कभी ये लोग पुलिस के सामने सब भड़भड़ाकर उगल देते हैं लेकिन दूसरे ही पल पुलिस को भी अपनी बातों की भूल-भुलैया में उलझाना उन्हें आता है। अपने सिर पर भटा मारने जैसा है इनसे उलझना। भठियारखानों में रहने वालों की भट्ठी में भलों की दाल नहीं गल सकती। जैसे भड़भूजे की भाड़ में केवल चना ही नहीं भुनता कभी-कभी और भी बहुत कुछ जल जाता है। दिखावटी लोगों का भंडा बहुत कम फूटता है। तब ऐसा लगता है जैसे भई गति साँप छछुंदर केरी अर्थात् दुविधाजनक स्थिति हो जाती है।

भवसागर

‘भ’ की कुछ कहावतें भस्म रमाते शिव की याद दिलाती हैं, भवसागर में फँसे मानव को नया दर्शन दे जाती हैं जैसे भरी गगरिया चुपके जाए, भरी थाली में लात मारना, भरे पेट शक्करगर खारी, भलो भयो मेरी मटकी फूटी, मैं दही बेचने से छूटी, भलो भयो मेरी माला टूटी राम जपन की किल्लत छूटी, भागते भूत की लंगोटी ही सही, भाड़ झोंकना, भाड़ में जाना, भाड़े का टट्टू, भानुमति का कुनबा, भानुमति का पिटारा, भार उठाना, भार उतारना, भीख माँगे और आँखें दिखाए, भीगी बिल्ली बनना, भूख लगी तो घर की सूझी, भूत सवार होना, भूल गए राग-रंग भूल गई छकड़ी तीन चीज़ें याद रहीं नून तेल लकड़ी, भेड़ की खाल में भेड़िया, भेड़ जहाँ जाएगी वहीं मुड़ेगी, भैंस के आगे बीन बजाना, भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस खड़ी पगुराय, भौंकते कुत्ते को रोटी का टुकड़ा, भौंह चढ़ाना और जिससे शुरू किया उस भले के नाम से अंत में यह कहावत- भले का भला