बेहतर की तलाश में

बेहतर की तलाश में

समय सापेक्ष होता है। जो एक बार हुआ वह दूसरी बार भी होता है और दूसरी बार अधिक तीव्रता से होता है। इसका एकदम ताज़ा उदाहरण कोविड है। लगभग दस साल पहले स्वाइन फ्लू आया और चला गया तब हमने उसे संजीदगी से नहीं लिया, अब एक दूसरी बीमारी के रूप में, कोरोना महामारी में रूप में अधिक तीव्रता से आया है। यदि दस साल पहले ही हमने अपनी जीवन शैली, अपने तौर-तरीकों को बदल लिया होता तो शायद यह आपदा इस तरह से नहीं आती।

लक्ष्य पर केंद्रित

बहुतेरे काम हम समय रहते नहीं करते। एक सीवन अगली दस उधड़न से बचा लेती है, यह हम पढ़ते तो हैं लेकिन अमल में नहीं लाते। जब-जब हमारे आगे घना अँधेरा छाता है, हम प्रकाश की राह खोजते हैं। जैसे ही हम उजाले में पहुँच जाते हैं, उसकी चकाचौंध में हम सब भूल जाते हैं, वो अँधेरा भी जहाँ से निकलकर हम आए थे।

मदमस्त जीने से कुछ समय बाद होता यह है कि हम फिर उसी अँधेरे में पहुँचते हैं, फिर चीज़ों को टटोलते हैं और रोशनी की राह पाते हैं। यह चक्र चलता रहता है। यदि उजाले में आकर हम लक्ष्य पर केंद्रित रहें, तो शायद घटनाक्रम बदला जा सकता है, लेकिन हम ऐसा नहीं करते, हम ऐसा करना नहीं चाहते।

चरम ध्रुव

हमारी सोच और हमारी मानसिकता इतनी पक्की होती है कि हमेशा हम दो चरम ध्रुवों पर ही विचार करते हैं। या तो हम ऐसे सोचने वालों में होते हैं कि हमारे साथ कभी कुछ ग़लत नहीं होगा या हम उन लोगों में होते हैं जिन्हें लगता है कि सब ग़लत उनके साथ ही होने वाला है।

हम बीच के रास्ते पर नहीं चलते। हम उस बिंदु पर नहीं होते जहाँ से हम श्रेष्ठ का स्वागत कर सकें या बदतर के लिए तैयार रह सकें। हमें लगता है हमारा जीवन जैसे चल रहा है, वैसे ही चलता आया है और वैसे ही चलता रहेगा। हम भूल जाते हैं कि जीवन का पहिया है वह ऊपर-नीचे घूमता रहा है और घूमता रहेगा।

उम्मीद कीजिए

यही वजह है कि जब दुनिया के दूसरे देशों में कोरोना आया तो हम निश्चिंत रहे कि हमारे देश में ऐसा नहीं होगा, जब दूसरों के घरों में इसका साया पहुँचा तब भी हम आराम करते रहे कि हमारे यहाँ नहीं होगा। अब जब हर दूसरे घर में यह पाँव पसार रहा है, प्रति मिनट सौ से ज़्यादा नए मामले और हर दूसरे मिनट पर एक मौत हो रही है तब हमारी सोच नकारात्मकता के उस बिंदु पर पहुँच गई है कि कुछ नहीं बदलेगा

जैसे विपदा आती देख निश्चिंत बने रहे ग़लत था वैसे ही भयानक कठिन समय में पूरी तरह निराश हो जाना भी सही नहीं है। उन दिनों के बारे में सोचिए जब आप उन्मुक्त विचरण कर रहे थे, उम्मीद कीजिए कि वे दिन फिर लौटेंगे। आप जैसा सोचते हैं, कई बार आपके जीवन में वैसा ही घटित होता है।

सकारात्मक बातें

हमारे बड़े-बूढ़े हमेशा कहते थे कि घर में सकारात्मक बातें ही बोलनी चाहिए, वास्तु देवता कभी भी तथास्तु कह सकते हैं। तब हम उनकी बातें अनसुनी कर दिया करते थे। भले ही आज भी उन बातों पर विश्वास न हो लेकिन यदि हाथ में कुछ न हो तो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से अच्छा है इस विश्वास को जीकर देखें

अपने आसपास का वातावरण, अपने आसपास की ऊर्जा को सकारात्मक बनाए रखिए। जैसे ये दिन आए, वैसे वे दिन भी आएँगे। आमों पर कोयल हर साल कूकती है, वह आपको निराश नहीं करती तो यकीन मानिए सावन के झूले इस साल भी डलेंगे। विश्वास करके तो देखिए।

एक बार आपने भला जीवन जीया है, तो दूसरी बार भी आप भला जी पाएँगे और वो अधिक बेहतर होगा। आमीन!