ट्रेनिंग देनी होगी लड़कों को भी

ट्रेनिंग देनी होगी लड़कों को भी

हमने लड़कियों को छुईमुई मान लिया पर वे हमेशा कमज़ोर नहीं है, वे हर वह काम कर रही हैं जो पुरुष कर सकते हैं। वर्ष 2016 का एक मामला जनवरी 2021 में एक फैसले की वजह से चर्चा में आ गया लेकिन ऐसे कितने ही मामले हैं जिन्हें आवाज़ नहीं मिलती, जिन पर कोई कुछ बोलता नहीं और जो चुपचाप सहन कर लिए जाते हैं। ऐसे वे हज़ारों-लाखों मामले हैं जिनमें लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं और उनके साथ हुई किसी घटना को भूल जाती हैं या उनकी कंडीशनिंग ऐसी की जाती है कि वे उसकी चर्चा कहीं न करें, इसका एक असर यह भी होता है कि किसी दूसरी लड़की या महिला के साथ ऐसी कोई घटना होती है तब भी वह महिला सलाह देती है कि चुप लगा जाए।

वर्ष 2016 में वह लड़की 12 साल की थी, अब वह 17 साल की हो गई होगी, अगले साल वयस्क की श्रेणी में आ जाएगी लेकिन क्या गारंटी की जो उसके साथ 12 की उम्र में हुआ वह आगे नहीं होगा। लड़कियों के मन में अपराधबोध डाल देते हैं कि कुछ भी ग़लत हुआ, तो ग़लती उसी की है। वर्जनाएँ स्त्री देह पर है। गारंटी उस लड़की को ही लेनी होगी कि वह खुद को सँभालकर रखेगी और दुनिया को भला बोलेगी।

मतलब सँभलना लड़कियों को ही है, हम लड़कों को कब सिखाएँगे कि वे भी सँभल जाएँ। वरना हम यह तक कहने से नहीं चूकेंगे कि लड़की बाहर ही क्यों निकलती है?

अबोध मन में बोध

लड़कियाँ जब अबोध होती हैं तबसे उनके मन में यह बोध डाल दिया जाता है- देखो कोई चॉकलेट देने के बहाने बुलाए तो उसके पीछे चली मत जाना। मतलब तुम ऐसा मत करना, किसी लड़के से नहीं कहा जाता कि तुम कभी किसी लड़की को मत बहलाना,फुसलाना। लड़कों को वो ट्रेनिंग ही नहीं मिलती तो उन्हें लगता है वे जो करना चाहें, उसे करने के लिए आज़ाद हैं। उस लड़की से भी कहा होगा कि चॉकलेट के पीछे मत जाना, वो अमरूद के पीछे चली गई। उस 39 साल के आदमी ने उस 12 साल की लड़की को अमरूद देने के बहाने अपने घर बुला लिया, उसके स्तनों को दबा दिया।

मनोविश्लेषण के संस्थापक सिग्मंड फ्रायड ने मानव की पाशविक प्रवृत्ति पर बल दिया था। उन्होंने यह स्पष्‍ट किया कि निम्नतर पशुओं के बहुत सारे गुण और विशेषताएँ मनुष्यों में भी दिखाई देती हैं। उनका मत था कि वयस्क व्यक्ति के स्वभाव में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाया जा सकता क्योंकि उसके व्यक्तित्व की नींव बचपन में ही पड़ जाती है, जिसे किसी भी तरीके से बदला नहीं जा सकता। मतलब उस 39 साल के आदमी को अपने बचपन से पता था कि वह पुरुष है और वह कुछ भी कर सकता है। कितना आसान लगा होगा उसे कि वह ऐसा कर सकता है और किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगेगी। उसके दिमाग में बैठा होगा कि लड़कियाँ तो भोली होती हैं, याकि नासमझ ही, याकि निरी मूर्ख ही, उन्हें तो किसी भी तरह से बहलाया जा सकता है।

लड़कियों का भावनात्मक रूप से कमज़ोर होना दूसरे के हाथ में ताकत दे देता है और वो भी उस मर्द के हाथों में, जिसे लगता है किसी लड़की को घर बुलाने की भी क्या ज़रूरत, रेल में, बस में, किसी भी भीड़भाड़ वाले इलाके में वह जब चाहे किसी भी लड़की पर हाथ साफ़ कर सकता है और लड़की कहाँ कुछ बोलेगी। लड़िकयों को क्यों नहीं सीखाया जाता कि यदि कोई उनके नाज़ुक हिस्से पर वार करता है तो वे भी लड़कों के नाज़ुक हिस्से पर ज़ोरदार वार कर सकती है, उन्हें पलटवार करना चाहिए।

अंधा कानून

अब तो बॉम्‍बे हाईकोर्ट की नागपुरबेंचने 19 जनवरी को फैसला दे दिया है कि “लड़की की छाती को जबरन छूना भर यौन उत्‍पीड़न नहीं है। अगर कपड़े के ऊपर से छुआ गया है और ‘स्किन टू स्किन टच’ नहीं हुआ है तो यह पॉक्‍सो कानून की धारा 7 के तहत यौन उत्‍पीड़न और धारा 8 के तहत दंडनीय अपराध नहीं है।” जब ये केस निचली अदालत में पहुँचा था तो अदालत ने आरोपी को भारतीय दंड संहिता की धारा 354 (शील भंग के इरादे से महिला पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग), 363 (अपहरण के लिए सजा) और 342 (गलत तरीके से बंदी बनाकर रखने की सजा) के तहत एक साल के कारावास की सजा सुनाई थी और साथ ही पॉक्‍सो ऐक्‍ट (प्रोटेक्‍शन ऑफ चिल्‍ड्रेन फ्रॉम सेक्‍सुअल ऑफेंस, 2012) के खंड 8 के तहत तीन साल के कारावास की सजा सुनाई थी लेकिन उस आदमी ने इस फैसले के खिलाफ बॉम्‍बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में अपील की, जिसका फैसला19 जनवरी 2021को आया। सिंगल जज वाली इस बेंच की जज पुष्‍पा गनेडीवाला ने निचली अदालत के फैसले को पूरा ही पलट दिया और पॉस्‍को कानून के तहत दी गई 3 साल की सजा माफ कर दी। एक महिला ने ही सजा माफ़ कर दी, जबकि उम्मीद की जाती है कि जजों के पद पर महिलाएँ नियुक्त होंगी तो महिलाओं को न्याय मिल सकेगा।

मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले संगठन नेशनल कैंपेन अगेंस्ट टॉर्चर (NCAT) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में हर दिन 96 बच्चे यौन शोषण और अत्याचार का शिकार होते हैं। विश्व परिदृश्य में जब इस तरह की खबरें पहुँचती हैं तो कोरोना और आतंकवाद के अलावा यह भी एक कारण बन जाता है कि अमरीकी विदेश मंत्रालय ताज़ा बयान देता है भारत लेवल 4 में आता है जो यात्रा के लिहाज़ से सबसे ख़राब है। अमेरिका में एक ऐसा मामला प्रकाश में आया था कि जब बलात्कार के समय लड़की ने कंडोम ऑफर किया था और वकील ने पक्ष रखा कि लड़की की भी इच्छा रही होगी। लेकिन वहाँ की अदालत ने माना उसने अपनी सुरक्षा के लिए यह कदम उठाया था पर हुआ तो बलात्कार ही था और बलात्कार स्वीकार नहीं। इतना विश्वास हमारे देश के कानून के प्रतिक्यों नहीं, क्यों विदेशी महिला पर्यटक यहाँ खुद को सुरक्षित नहीं पाती, और देश में रहने वाली महिलाएँ भी अपने आपको इस देश में कहाँ सुरक्षित पाती हैं?

संस्कारों की दुहाई

ऐसे मामले हर महिला की सुरक्षा पर प्रश्नचिह्न लगा देते हैं और हर पुरुष को भी कटघरे में खड़ा कर देते हैं। फिर क्या हमारे आसपास के सारे पुरुष वे भाई हों, पति हों, पिता हों या मित्र हों, वे बाहरी दुनिया में ऐसे ही हैं और क्या हमारे आसपास की हर महिला तमाम रिश्तों से परे बस एक स्त्री देह है?

हमारे यहाँ पुरुष और स्त्री को सहज रहने नहीं देते। मेरठ में बगीचे में बैठे लड़के-लड़कियों को लाठी से कुटाई करते दृश्य आते हैं कि सिद्ध करो कि भाई-बहन हो या पति-पत्नी हो, हम सहज प्रवृत्ति को मान्य ही नहीं करते। हम अपने संस्कारों की दुहाई देते हुए कहते हैं ऐसा नहीं है। हम हर रिश्ते को एक नाम देने पर तुल जाते हैं। पर किसी के पड़ौस के चाचा, मामा, काका के हाथों ही शिकार हुई लड़की किस रिश्ते पर कैसे विश्वास कर सकती है?

हम कहते हैं लड़के-लड़की मित्र हों तो वे आपस में भैया-बहन कह लें ताकि रिश्ता पाक साफ़ रहे इंदौर हाईकोर्ट फैसला दे देती है कि छेड़खानी करने वाले व्यक्ति को राखी बाँध दी जाए ताकि आगे से वो छेड़खानी नहीं करेगा। पवित्र भाव वाले रिश्ते की आड़ में एक अपराधी से राखी बँधवाकर कहते हैं कि अब कोई दिक्कत नहीं। लड़कों को हम ये कब सिखाएँगे कि राखी बाँधी गई हो या न भी गई हो, छेड़खानी नहीं करनी है हम अपने लड़कों को कब सिखाएँगे? भँवरी देवी मामले में राजस्‍थान की निचली अदालत बेहूदा बयान दे देती है कि ऊँची जाति का आदमी निचली जाति की औरत को हाथ भी नहीं लगा सकता, बलात्कार कैसे करेगा? लेकिन बलात्कार तो होता है। जैसे शिकारी शिकार टूट पड़ता हो। गैंग रेप कितना भयानक, विषैला है।

कौन पहल करेगा? जब हमारी अदालतों से हमें उम्मीद न हो, जब महिला जज भी संवेदनशील न हों, तो हम कहाँ जाएँगे? स्त्री हो या पुरुष यदि वह मनुष्य है तो क्या मनुष्य होने की अनिवार्यता नहीं है कि उसे संवेदनशील होना चाहिए और जो संवेदनशील नहीं है क्या नहीं लगता कि उन्हें पिंजरे में बंद कर देना चाहिए, या ऐसे घर के बाहर तख्ती लगा देना चाहिए- पुरुषों से सावधान!