अनसुना करने की आदत छोड़ दें

अनसुना करने की आदत छोड़ दें

‘सुनते नहीं हैं’, यह आम शिकायत है। माता-पिता को बच्चों से, शिक्षकों को छात्रों से, अधिकारियों को कर्मचारियों से, बीवियों को पति से, सास को बहू-बेटों से मतलब हर रिश्ते में यह शिकायत है कि सुना नहीं जा रहा। क्या इसकी एक ही वजह है कि अनसुना किया जाता है या सुनने की कला ही विकसित नहीं हो रही है

धैर्य का अभाव

सुनने के लिए ज़रूरी होता है धैर्य। क्या कहा जा रहा है, उसे सुनना और समझना और मानना जब होता है तो तीनों मिलकर सार्थक सुनना होता है। किसी के पास दूसरे के बारे में सोचने-समझने की फुर्सत नहीं है तो सुनने की भी नहीं है। क्या केवल समय न होना इसकी वजह होती है या किसी और को अपने जीवन में इतना महत्व ही नहीं दिया जाता कि उसकी बात सुनी जाए

रूठ न जाना

पहले बड़ों की बातें सुनना आवश्यक होता था। बड़ों की डाँट, नाराज़गी, गुस्से से डर लगता था। डर ख़त्म होना अच्छी बात है लेकिन अनुशासन के लिए यह डर ही बहुत बड़ी चीज़ होती है। भय बिना प्रीत भी नहीं हो सकती तो आदर कैसे होगा। यह भय है दूसरे के नाराज़ हो जाने का। मतलब कोई आपके जीवन में इतना महत्वपूर्ण होता है कि आप चाहते हैं कि वो नाराज़ न हो जाए। तो क्या आज के दौर में कोई और इंसान किसी के जीवन में उतना महत्वपूर्ण नहीं रह गया है?

हालात ऐसे

या इसकी वजह यह है कि हर कोई स्व केंद्रित होता जा रहा है और दूसरे की सुनने के बजाय खुद के मन का सुनने लगा है। यदि दूसरों की कद्र करने का मानस हो तो आवश्यक लॉक डाउन या नाइट कर्फ्यू जैसे हालात भी न बनें दूसरों की सुनना मतलब उसकी भावनाओं को समझना, आवश्यकताओं को समझना, उसके होने को समझना। जब तक यह बात समझ नहीं आएगी कि दूसरे के होने से ही आपका होना है तो कुछ साध्य नहीं होगा।

नतीजा सामने

न सुनने की आदत की वजह से ही हमने धरती के दर्द को नहीं सुना। प्रकृति की पीड़ा को अनसुना कर दिया और अचानक दौड़ती-भागती ज़िंदगी थम गई। क्या उसके बाद भी हम नहीं सुनेंगे? क्या हमारी पलटकर जवाब देने की आदत से हम बाज आएँगे? एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दी और किसी ने एक कहा तो हमने उसे दो सुना दी इसी के चलते प्रकृति ने जितना दिया उससे ज़्यादा हमने उसका दोहन किया और नतीजा सामने है।

क्या करें

तो क्या करना होगा? सवाल सामने होंगे तभी जवाब तक पहुँच पाएँगे। केवल शिकायत करने से कुछ नहीं होगा। समाधान तक जाना होगा। सुनने की आदत डालनी होगी। इतने दिनों तक न सुनकर जी लिए तो अब सुनकर देखिए। यदि ईमानदारी से सुनना चाहेंगे तो इतना बुरा नहीं होगा। किसी की ठोकर से कोई सीख ले तो उसे ही समझदार कहते हैं। जिसे ठोकर लगती है वह उस रास्ते से आने वालों को बताता है कि ऐसा न करो, गिर पड़ोगे लेकिन आपने नहीं सुना तो गिरने का खतरा बना रहेगा।

खुद सुनें

यदि आप सुनना शुरू करेंगे तो आपका कहा भी सुना जाएगा। कितनी अजीब बात है कि हम किसी की सुनना नहीं चाहते और यह भी चाहते हैं कि बाकी सब आपकी सुनें। शुरुआत खुद से करें। सुनना शुरू करें। सालों से आपका साथ दे रहा आपका शरीर क्या कह रहा है, उसकी सुनें। हो सकता है आपका शरीर आराम करने के इशारे दे रहा हो, आराम कीजिए। चिकित्सकीय सलाह लीजिए।

आपका मन क्या कह रहा है, यदि मन अपनी शांति के लिए आपको प्रार्थनाघर तक ले जा रहा है, जाइए दुआ माँगिए, खुद के लिए, दूसरों के लिए और ईश्वर भी आपकी तभी सुनेगा, जब आप अपने अवचेतन की बात सुनेंगे। दूसरे की सुनिए और दूसरों को श्रेय दीजिए। सुनिए क्योंकि अपनी मनमर्जी से जीते हुए हासिल ‘नील बटा सन्नाटा’ मिला हो तो इस बार थोड़ा परिवर्तन करके देखिए, सुनिए...