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आधा सच
‘अ’ से शुरू हुई एक अधूरी यात्रा...
अभी उसने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी, बात क्या, जो वह कह रही थी, उतना शब्द भी पूरा नहीं हुआ...वह शब्द तक अधूरा रह गया था कि कोई बीच से उठ चला गया था। इतना ही कहा था ‘अ’...कि उस अधूरे ‘अ’ को भी पूरा सुने बिना वह चला गया। बात पूरी तो हो जाती... पूरी दुनिया को इस आधी दुनिया से कोई लेना-देना ही नहीं था... जिसे ‘अनार-आम’ तक की समझ न हो ऐसे अनपढ़, गँवार से क्या ताल्लुक रखना?
इसलिए भी ऐसा हुआ कि आधी दुनिया ने बड़े उत्साह से ‘अ’ से शुरुआत की लेकिन ‘आ’ के आगे न बढ़ पाई...उसके आगे का केवल एक शब्द और सीख लेती ‘इ’, तो इंकलाब ले आती...क्रांति कर देती तो ‘ज्ञ’ से ज्ञानी भी हो ही जाती। पर ऐसा कुछ न हो सका...बात ‘ए’ तक तो पहुँची ही नहीं कि गा दे ‘एकला चलो रे’...बस आधी दुनिया अकेली रह गई।
बारहखड़ी का ‘अ’
जाने केवल ‘अ’ से अपने लिए उसने कितने अर्थ, अन्वयार्थ निकाल लिए। कुछ भी हो सकता था...वह बचपन की बारहखड़ी का ‘अ’ भी हो सकता था जिससे अनार कहना चाहा हो...पर जैसे हर कोई सब जानता था, ऐसे लोग बीच संवाद से उठ गए थे, जैसे ‘अनार के सौ बीमार’ हो।
अब आप कहेंगे कि हर कोई अपने हिसाब से अर्थ लगा रहा है। पर इस ‘अ’ को जो सब अपने हिसाब से ले रहे हैं, वह उसके जाने के बाद की गणना है। वह सामने था, तो उसे पूरा सुना जा रहा था, पूरा सुनना चाहा जा रहा था। क्या बातें इतनी बोझिल हो गई थीं कि उन्हें पूरा सुनने का धैर्य नहीं बचा था? लोग तो उसे बहुत विनयशील मानते थे, ‘अ’ से थोड़ा अदब भी दिखा देते...रुक जाते।
‘अ’ से अजनबी
उसके पास समय की कमी रही होगी। अपनी तरफ़ से यह बचाव पत्र है। ‘अ’ से अलबत्ता उसे इसकी भी दरकार नहीं होगी। जिनका वार हम अपने ऊपर लेते हैं, उनसे ही बचाव करना होता है, पीठ फेरकर, मुँह मोड़कर चले नहीं जाते। जिसे शत्रु की हैसियत का भी नहीं माना, उसे मित्र कैसे समझ लेते? इतना ‘अ’ से अनमनापन कब से आ गया, लोग तो उससे अपनापन माने जा रहे थे, पर वह तो ‘अ’ से अजनबी ही लगने लगा।
‘अ’ से बड़ा अजीब लग रहा है पर जिसके सामने सारा उड़ेल कर रख देने की इच्छा हो, वही कह दे कि अपनी हताशा, अपनी विफलता, अपनी हार...रहने दो अपने ही पास और जीत के गुमान में जीने दो...तो कोई कर भी क्या सकता है। आधी दुनिया की स्त्रियाँ इसी दौर में जी गई और बाकी आधी दुनिया ‘अजातशत्रु’ हो गई।
अनंत और अपरिमीत
आधी दुनिया ने कभी सांत्वना के शब्द चाहे होंगे, कभी मोह के बंधन, कभी प्रेम का इज़हार, कभी आलिंगन...लेकिन बाकी की दुनिया लगा कि ये कोरी भावनाएँ हैं और इनसे दुनिया नहीं चलती। दुनिया ‘अ’ से अंबर है, अग्नि है, अवनि (पृथ्वी) है, अनिल (वायु) है, अंबु (पानी) है और क्या इन सबके बिना चल सकती हैं? पर ‘अ’ से अब इन अबोध प्रश्नों का क्या अर्थ रह जाता है?
लोग ‘अ’ से अनगढ़ थे, तो गढ़ देते, वे उस हिसाब से ढल भी जाते...इतनी ‘अ’ से असीम चाहना थी। पर ‘अ’ से जुड़े ऐसे कितने ही अनजाने लोगों की, अनजानी, अनगिनत चाहतें उसके लिए होंगी... और वह उनसे अनजान रहा। उसका ‘अ’ अनंत और अपरिमीत है...उसका सब सीमित।
‘अ’ से अधिकार
वह ‘अ’ से अभेद्य, अजिंक्य था...यूँ अकारण तो नहीं गया होगा, यह पता है। उसे किसी बात की शिकायत भी नहीं है...शिकायत करने का ‘अ’ से उतना अधिकार भी नहीं। ‘अ’ की यात्रा आगे ‘आ’ तक बढ़ती तो आधी दुनिया का आधा सच ही सामने था... कि ‘आ’ से आज़ादी माँगी जाती है, न मिलने पर छीनी जाती है, उसके लिए लड़ाई लड़ी जाती है लेकिन ‘अ’ से अधिकार कोई कैसे माँग सकता है, यह तो दिया जाता है...