‘अ’ से ‘आ’ तक

‘अ’ से ‘आ’ तक

आषाढ़ के किसी दिन बादल बरसे पर हुआ कुछ ऐसा कि वाह न निकली और मुँह से आह निकल गई! ‘आ’ से निकली इसी ‘आह से ही तो उपजा था पहला गान’। पर उस गान को आह से ही क्यों उपजना था... ‘आ’ से बहुत कुछ आकर्षक भी हो सकता था...कुछ आत्मीय हो सकता था...सुखद आनंद का आग्रह भी तो हो सकता था...पर ऐसे प्रश्न ‘आ’ से आम जनों के मन में आते हैं।

आमूलचूल परिवर्तन

जिन्हें जाना होता है, वे ‘आ’ से आज की बात तक पूरी किए बिना चले जाते हैं। वे ‘आ’ से आदरणीय होते हैं, ऐसे सवालों में नहीं उलझते..वे जवाब नहीं देते, वे ‘आ’ से आदतन बुद्धिमानी दिखाते हैं और ‘आ’ से लगने वाली आग को पहले ही भाँपकर अपना दामन बचा लेते हैं। उन तक ‘आ’ वाली कोई आतिश नहीं पहुँचती...और फिर जब सब ठंडा हो जाता है तो उनका ‘आ’ आगमन होता है। उनके इस तरह आने से कइयों के जीवन में ‘आ’ का आमूलचूल परिवर्तन हो जाता है और वे इसे बड़ी साधारण घटना कह ‘आ’ से उसी आवेश में चले जाते हैं, जैसे आए थे

आवागमन

उन्हें इस तरह ‘आ’ का आवागमन करते रहने की ‘आ’ की आदत-सी हो जाती है...पर जब वे नहीं होते तो मन गुहार लगाता है ‘आ’ से आन मिलो की...वे ‘आ’ से आने का वादा करते हैं और ‘आ’ से आदेश दे देते हैं कि तब तक शांति बनाई रखी जाए...और ‘आव देखते हैं, न ताव’ चले जाते हैं। वे किसी का भी आतिथ्य इस तरह आसानी से नहीं स्वीकारते। उनके जाने के बाद उनके बारे में कई ‘आ’ की आख्यायिकाएँ बनती हैं पर उनकी ‘आ’ की कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती, उनके लिए यह सब ‘आ’ से आसान होता है।

वे कहते हैं कि वे मसरूफ़ हैं ‘आ’ वाले आजकल में...उनके ‘आ’ के आलोक से दीप्त जन समूह उनकी ‘आ’ आज़ाद ख्याली का कायल हो जाता है। वे ‘आ’ से आम आदमी तो होते नहीं कि क्षणिक आक्रोश के ‘आ’ में कोई भी कदम उठा लें।

आगाज़ और आमद

‘आ’ का आगाज़ और आमद दोनों बेमिसाल होती हैं इसलिए तो वे ‘आ’ से आसानी से भुलाए नहीं जा सकते हैं। वे ऋतुओं में वसंत और फलों के राजा ‘आ’ आम होते हैं, कि उनकी उपस्थिति ही मदमस्त बना देती है। वे आदित्य होते हैं और आच्छादित कर लेते हैं आकाश..उनके उदित होते ही अँधियारा हार जाता है और वे चमक उठते हैं, फिर उनकी ओर कोई कैसे न देखें? उनके आचार-विचार बहुत आदर्शवादी होते हैं। वे आजीवन, आठों-पहर कार्य मग्न रहते हैं। उनमें आड़ा-तिरछा कुछ नहीं होता फिर भी उनका ‘आ’ से आकलन कर पाना कठिन होता है।

आज़माइश

उनकी एक मात्रा भर लग जाने से सीधा-सादा ‘अ’, ‘आ’ बन जाता है...वे आईना दिखा देते हैं। कोई उनके प्यार में ‘आ’ से आकंठ डूब जाए तो उसे किनारा दिखा देते हैं। उनकी आकांक्षा करने वालों के लिए वे पहुँच से बाहर का आकाश होते हैं। वे आकाशकुसुम होते हैं और अपनी कही बात को वे इस तरह देखते हैं कि उनका कहा आकाशवाणी हो, जो बार-बार नहीं होती। वे ‘आ’ से आकर्षक होते हैं। कभी किसी का आतुर मन उन्हें ‘आ’ से आगोश में भर लेने का करता है। पर वे तो ‘आ’ के आगंतुक होते हैं। आकुल मन उनकी ओर आकृष्ट हुआ चला जाता है, वे उस पर कोई आक्षेप नहीं लेते..उनके लिए वह एक आखेट की तरह होता है और वे आगामी शिकार की नज़र से उसे देखते हैं।

कोई आजन्म प्रतीक्षा करता रहे, वे उसकी आज़माइश करते रहते हैं। क्या आघात करना ही उनका आद्य कर्‌म होता है? पर कोई यह किस आधार पर कहे? वे आद्रा नक्षत्र की तरह आपके साथ चलते हैं और जब ख़बर आती है कि आद्रा धूमिल हो रहा है तो आदिकाल से चले आ रहे इस नक्षत्र के जाने की आशंका आपको आघात दे जाती है। यदि आत्मकेंद्रित हो अपना आत्मबल इकट्ठा कर लें तो आपका आत्मकथ्य एकदम नए आधार से आ जाएगा...आज़माकर देखिए...