दिन विशेष- विश्व पर्यावरण दिवस, 5 जून

दिन विशेष- विश्व पर्यावरण दिवस, 5 जून

आप अभी क्या कर रहे हैं?

देखते-देखते जून की पाँच तारीख आ गई। यह दिन जिसे विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। किसी भी दिन को मनाने की ज़रूरत क्यों पड़ती है? कहीं न कहीं हम रोज़-बरोज़ जिसकी अवहेलना करते हैं उसे किसी एक दिन मनाकर अपनी जवाबदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं वैसा ही कुछ पर्यावरण दिवस का भी है। हर दिन पर्यावरण से खेलते हुए एक दिन हम गो ग्रीन का नारा दे देते हैं।

जल, जंगल और ज़मीन

पिछले दो साल में पर्यावरण या तदर्थों में प्रकृति ने अपना रंग दिखा दिया है। उसने हमें चेता दिया है कि यदि हम अब भी नहीं सुधरे तो वह क्या से क्या कर सकती है! वह आपके किसी एक को मना लेने की मोहताज़ नहीं है, जल, जंगल और ज़मीन को नहीं बचाया, पहाड़ों को कटने से नहीं रोका तो वह अपना लोहा खुद मनवा सकती है।

सालों से सुनते आ रहे थे कि तीसरा महायुद्ध पानी को लेकर होगा। आसन्न जल संकट के बारे में आगाह करते हुए भी हम नहीं चेते और पानी की कीमत चुकाते रहे। काल का ऐसा प्रहार हुआ कि हमें प्राणवायु ऑक्सीजन भी खरीदने की नौबत आ गई। हमने अपने आसपास के तमाम पेड़ों को बेदर्दी से काटा था तब सोचा नहीं था कि ऑक्सीजन भी न मिलेगी तो क्या होगा? हम वातानुकूलित कमरों में बैठ रुतबा जमाते रहे कि हमने मौसम को काबू में कर लिया लेकिन अब शोध कह रहे हैं एसी में मत बैठिए।

आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति

हम कितने स्वकेंद्रित हो गए हैं इसका एक सटीक उदाहरण सेल्फ़ी लेने का क्रेज़ है। हमें दूसरों पर ज़रा भी भरोसा नहीं है कि किसी को कह सकें कि- भैया हमारा फ़ोटो खींच दो। इसी आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति के चलते हमने सोचा अपना आज का गुज़ारा हो रहा है न, कल की और दूसरों की क्यों चिंता करना। आज प्रकृति ने हमें बता दिया है कि सब बचेंगे तभी हम बच सकेंगे। केवल अपने बारे में सोचने से कुछ नहीं होगा।

विकसित देशों ने अपना सारा ई-कचरा पिछड़े देशों में डंप किया लेकिन ऐसी हवा चली कि सारे विश्व में भूचाल आ गया। मतलब साफ़ है कि केवल अपना घर साफ़-सुथरा कर लेने से कुछ नहीं होगा,हमें अपना परिवेश, अपना परिसर और बड़े अर्थों में अपना शहर, प्रदेश,देश और विश्व भी स्वच्छ और स्वस्थ रखना होगा। महाराष्ट्र में संत गाडगे बाबा हो गए थे वे झाड़ू हाथ में लेकर ही चलते थे। संत थे लेकिन समाज की हर तरह की गंदगी साफ़ करने में जुटे थे। आज हमें भी ऐसा ही कुछ करने की ज़रूरत है।

प्रकृति की ओर

प्रकृति हमें सिखा रही है, अपने पाठ पढ़ा रही है। यदि अब भी नहीं चेते तो तैयार रहिए जितना हुआ है उससे भी बुरा हो सकता है। जितनी विकट परिस्थितियाँ हैं उससे भी कठिनतम परिस्थितियों को हमने ही बुलाया है। मानकर चलिए पहले जैसे दिन तब तक नहीं आएँगे जब तक हम पहले से भी पहले के और उससे भी पहले वाले दिनों की ओर नहीं लौटते। आइए प्रकृति की ओर लौटें। प्रकृति ने एक झटके में हमारी जड़ें हिला दी हैं, आइए अब तो अपनी जड़ों की ओर लौटते हैं। प्रकृति के सान्निध्य में रहते हैं। किसी भी बिलिनियर से पूछिए वह क्या सोचता है, वह अकूत संपत्ति के बारे में नहीं, प्राकृतिक संपदा के बारे में सोचता है।

एक कहानी

वह कहानी याद कीजिए जब एक तथाकथित सफल व्यक्ति छुटिट्याँ मनाने कंट्री साइड गया। वहाँ उसने एक गड़रिए को पेड़ के नीचे सुस्ताते हुए बाँसुरी बजाते देखा। उस व्यक्ति ने पूछा, तुम इतने आराम से कैसे हो, तुम्हें कुछ काम नहीं है? गड़रिए ने कहा, काम ही तो कर रहा हूँ। भेड़-बकरियाँ चरा रहा हूँ। व्यक्ति ने कहा, पर तुम तो आराम से लेटे हो। गड़रिए ने जवाब दिया, जब वे अपने आप चर रही हैं, तो मैं दखल क्यों दूँ? व्यक्ति ने पूछा, तुम्हें बड़ा आदमी नहीं बनना? गड़रिया पूछ बैठा- बड़ा आदमी बनकर क्या होगा? व्यक्ति ने कहा, तुम बड़े आदमी बनोगे, खूब पैसा कमाओगे तो मेरी जैसी छुट्टियाँ मना सकोगे। गड़रिए ने पूछा- तो मैं अभी क्या कर रहा हूँ।

इस कहानी पर आप भी मनन कीजिएगा।